Overthinker & Hyperactive Mind
अति-चिंतन और अति-सक्रियता: मानसिक और शारीरिक प्रभाव
यदि आप किसी भी अति-चिंतक (over thinker) या अति-उत्साही (over hyper) व्यक्ति को देखें, तो पाएँगे कि दोनों में मुख्य रूप से एक ही प्रवृत्ति होती है। अति-चिंतन और अति-सक्रियता एक ही मानसिक प्रक्रिया के दो रूप हैं। इन दोनों ही स्थितियों में मस्तिष्क की सक्रियता अत्यधिक बढ़ जाती है, जिससे शरीर की ऊर्जा खपत भी बढ़ती है।
मस्तिष्क का मुख्य आहार ठोस पदार्थ होते हैं, जल की अपेक्षा ठोस भोजन ही इनके लिए अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है। यदि आप किसी भी अति-चिंतक या अति-सक्रिय व्यक्ति के शरीर पर ध्यान दें, तो पाएँगे कि उनके शरीर में अतिरिक्त भार होता है। इसका कारण यह है कि उनके शरीर में ठोस तत्वों का अधिक संग्रह हो जाता है, क्योंकि शरीर की ठोस प्रवृत्ति में वृद्धि होती है।
जब शरीर बढ़ने लगता है, तो यह दर्शाता है कि ठोस भोजन का सेवन अधिक हो रहा है। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि अति-चिंतन करने वाला व्यक्ति अपने मानसिक तनाव को कम करने के लिए अधिक भोजन की ओर आकर्षित होता है। वह ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ठोस खाद्य पदार्थों पर अधिक निर्भर हो जाता है, जबकि पानी जैसी तरल चीजें उसे कम आकर्षित करती हैं। यदि कोई अति-चिंतक पानी पीता भी है, तो वह उसे सादे पानी की जगह मीठे या गैसयुक्त पेय पदार्थों के रूप में पसंद करता है।
अति-चिंतन करने वाले व्यक्ति को हर चीज़ में एक विशेष स्वाद की आवश्यकता होती है। उनके लिए सामान्य जल भी पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उसमें स्वाद होना चाहिए। यही कारण है कि ऐसे लोग मीठे पेय, कार्बोनेटेड ड्रिंक्स, और अत्यधिक मसालेदार भोजन की ओर आकर्षित होते हैं। जब वह गैसयुक्त पेय पीते हैं, तो उसमें उत्पन्न होने वाली गैस और उसके कारण होने वाली डकारें उन्हें संतोष प्रदान करती हैं। यह मानसिक रूप से उन्हें आराम देती हैं और तात्कालिक रूप से संतुष्टि का अनुभव कराती हैं।
यह देखा गया है कि जो लोग अत्यधिक अति-सक्रिय होते हैं, वे पूरे दिन में पानी पीने पर ध्यान ही नहीं देते। कई बार तो वे केवल दवाई लेने के लिए ही पानी पीते हैं। अति-सक्रियता के कारण शरीर में भोजन की माँग बढ़ जाती है, और जब व्यक्ति लगातार 15-17 घंटे तक सक्रिय रहता है, तो उसके शरीर को अधिक भोजन की आवश्यकता महसूस होती है। धीरे-धीरे, अधिक भोजन करने से शरीर भारी होने लगता है और फैटी लिवर जैसी समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं।
अति-चिंतन और शरीर पर प्रभाव
जब शरीर भारी हो जाता है, तो इसके कई दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं। व्यक्ति को नींद से जुड़ी समस्याएँ होने लगती हैं, और धीरे-धीरे उसे स्लीप एपनिया जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। इसके चलते मस्तिष्क की सेहत भी प्रभावित होती है, और मानसिक असंतोष बढ़ने लगता है। सुबह उठने के बाद व्यक्ति को असंतुष्टि का अनुभव होता है, और वह अपनी इस असंतुष्टि को अधिक भोजन के सेवन से भरने का प्रयास करता है।
इस तरह यह व्यक्ति एक चक्र में फँस जाता है। वह जितना अधिक सोचता है, उतना ही अधिक खाता है और जितना अधिक खाता है, उतना ही अधिक मानसिक असंतोष बढ़ता जाता है। यह स्थिति एक मकड़ी के जाल की तरह होती है, जिसमें व्यक्ति स्वयं ही फँसता चला जाता है। प्रारंभ में उसे लगता है कि यह जाल उसे ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सहायक होगा, लेकिन अंततः वह इसमें उलझ जाता है और निकल नहीं पाता।
यही स्थिति एक अति-चिंतक के साथ होती है। उसका मस्तिष्क यह मान लेता है कि जितना अधिक वह सोचेगा और जितनी जल्दी कार्य करेगा, उतनी जल्दी उसे सफलता मिलेगी। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से गलत है।
तेजी से सफलता की तलाश और मानसिक जाल
एक यूरोपीय लड़की, जिसकी उम्र मात्र 17-18 वर्ष थी, अत्यधिक अवसाद से ग्रस्त थी और भारी मात्रा में एंटीडिप्रेसेंट दवाएँ ले रही थी। जब उससे कहा गया कि वह अपने जीवन की गति को थोड़ा धीमा करे, तो उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि इससे उसकी सफलता प्रभावित होगी। लेकिन वास्तव में, वह पहले ही अवसाद और अत्यधिक दवा सेवन के जाल में फँस चुकी थी।
अति-चिंतन करने वाले व्यक्ति को यह समझना होगा कि इस मानसिकता के साथ वह किसी भी चीज़ में संतोष प्राप्त नहीं कर सकता। जब तक वह संतुष्टि को समझने और अपनाने की क्षमता विकसित नहीं करता, तब तक वह लगातार एक असंतोषजनक जीवन जीता रहेगा।
यथार्थवादी संतोष और समाधान
यदि कोई व्यक्ति अपने अति-चिंतन और अति-सक्रिय मानसिकता को नियंत्रित कर ले, तो वह अपने भोजन के सेवन को भी नियंत्रित कर सकता है। जब शरीर को अनावश्यक झटके नहीं दिए जाते, तो भोजन की आवश्यकता भी कम हो जाती है।
इसका एक साधारण प्रयोग किया जा सकता है—जब किसी व्यक्ति को कोई पसंदीदा भोजन दिया जाता है, तो यदि वह इसे खाने से पहले ही उत्साहित हो जाता है, तो इसका अर्थ है कि वह अति-चिंतन करने वाला है। लेकिन यदि वह पहले से ही संतुष्ट है, तो उसे कोई भी पसंदीदा भोजन देने पर भी वह उसे खाने की इच्छा महसूस नहीं करेगा।
अति-सक्रिय मस्तिष्क कभी भी पूर्ण संतोष प्राप्त नहीं कर पाता। यह मानसिक और शारीरिक असंतुलन को जन्म देता है। इसलिए, सबसे पहले व्यक्ति को यह समझना होगा कि वह एक असंतुष्ट आत्मा है। उसे अपने भीतर संतोष विकसित करने के लिए मानसिक स्तर पर प्रयास करने होंगे, तभी वह अपने शारीरिक असंतुलन को सुधार सकता है।
यदि मानसिक संतोष की खोज की जाए, तो कई शारीरिक समस्याएँ स्वतः ही समाप्त हो जाएँगी। अधिकांश समस्याएँ उतनी जटिल नहीं होतीं, जितनी वे प्रतीत होती हैं। लेकिन यदि व्यक्ति अपनी मानसिकता को नहीं बदलता, तो वह इन्हीं समस्याओं में उलझा रहेगा।
इसलिए, सबसे पहले अपने स्वभाव को समझें, अपनी आवश्यकताओं को पहचानें, और संतोष को अपनाने का प्रयास करें। तभी आप अति-चिंतन और अति-सक्रियता के चक्र से बाहर निकल सकते हैं।
अति-चिंतन और अति-सक्रियता: शारीरिक और मानसिक प्रभाव
लगभग 70-80 समस्याएँ ऐसी होती हैं जो सूजन, तनाव, हाइपर एसटी, कब्ज़ जैसी परेशानियों से जुड़ी होती हैं। अधिकतर ये या तो जीवनशैली से जुड़ी बीमारियाँ होती हैं या फिर अनावश्यक आदतों के कारण उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार की समस्या को मैं बीमारी नहीं कहता, बल्कि असुविधा (discomfort) मानता हूँ।
बहुत से लोग मेरे पास इसी तरह की समस्याओं के समाधान के लिए आते हैं, लेकिन मेडिकल साइंस इस तरह की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाती। उदाहरण के लिए, यदि आपके लीवर में कोई वायरस है या हृदय में समस्या है, तो दवा वहाँ प्रभावी होती है। लेकिन अगर आपको सामान्य एसिडिटी, IBS, सूजन, पेट में भारीपन जैसी समस्याएँ हैं और कोई संक्रमण नहीं है, तो कौन सी दवा इसे ठीक करेगी?
ये बीमारियाँ वास्तव में बीमारियाँ नहीं, बल्कि असुविधाएँ हैं, जो हम स्वयं को अति-चिंतन (overthinking) और अति-सक्रियता (hyperactivity) के कारण देते हैं। इसलिए मूल रूप से हमें यह समझना होगा कि हमें अति-सक्रिय नहीं होना चाहिए और अपने अति-चिंतन को थोड़ा कम करना चाहिए।
स्वयं को संतुलित करने के उपाय
इसके लिए ध्यान (meditation), प्राणायाम (pranayama), योग (yoga) और आत्मचिंतन बहुत आवश्यक हैं। यदि आप वास्तव में आत्म-संतुष्टि पाना चाहते हैं, तो आपको अपने लिए समय निकालना होगा। लेकिन अति-सक्रिय व्यक्ति के पास अपने लिए समय नहीं होता। वह दो घंटे चैट कर सकता है, लेकिन उसे योग करने का समय नहीं मिलता।
बहुत से लोग सोचते हैं कि वे योग कर रहे हैं, वे प्राणायाम कर रहे हैं। लेकिन अगर योग करते समय कोई संगीत चला रहा है, प्राणायाम करते समय टीवी पर कोई कार्यक्रम देख रहा है, सत्संग सुन रहा है या कोई और ध्यान भटकाने वाली चीज़ कर रहा है, तो वह वास्तव में मानसिक रूप से स्थिर नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि हम कहते हैं कि पहले इस बीमारी या असुविधा को हटाने की कोशिश करने से पहले अपने स्वभाव को समझें।
अति-चिंतन का समाधान तुरंत नहीं हो सकता
अति-चिंतक व्यक्ति हमेशा बिना समझे समाधान ढूँढना चाहता है। वह ऐसा तरीका चाहता है जिससे तुरंत राहत मिल जाए। लेकिन यह वैसा ही है जैसे किसी को गोली खाने की आदत पड़ गई हो। वह गोलियों का बंडल लिए बैठा है और लगातार दवाएँ चबा रहा है।
यह एक ऐसी आदत है जो तत्काल राहत देती है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह धीरे-धीरे अंदर से नुकसान पहुँचाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को महसूस भी नहीं होता कि वह अपनी ऊर्जा और स्वास्थ्य को नष्ट कर रहा है, जब तक कि यह समस्या गंभीर न हो जाए।
इसलिए, सबसे पहले अपने स्वभाव को समझें और अपनी मानसिकता को संतुलित करें। अपने जीवन में योग, प्राणायाम और ध्यान को सही रूप से अपनाएँ, ताकि आप अपनी मानसिक और शारीरिक असंतुलन से मुक्त हो सकें।
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