कुंभक प्राणायाम: विराम में छिपा स्वास्थ्य और ज्ञान
“श्वासों के मध्य का विराम जितना अधिक गहरा, शांत और स्थिर होता है, शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उतनी ही अधिक सशक्त एवं संतुलित होती है।”
वर्कशॉप का प्रमुख विषय;
(बैठकर एवं लेटकर किए जाने वाले प्राणायामों में)
1- अग्निसार (बहिर्कुम्भक)
2- उड्डियान (बहिर्कुम्भक)
3- टर्टल ब्रीथिंग (अंतर्कुम्भक– बहिर्कुम्भक)
4- उदर प्राणायाम (अंतर्कुम्भक)
5- Abdomen to Chest Breathing (अंतर्कुम्भक) और कुछ प्राणायाम ।
रोग-निवारण में कुंभक का योगदान:
1- फेफड़ों से संबंधित विकार जैसे अस्थमा, साँस की कमी आदि
2- यकृत (लिवर) और गुर्दे (किडनी) के विकार
3- पाचन-तंत्र संबंधी समस्याएँ—कब्ज़, पाइल्स, रेक्टम से संबंधित विकार
4- पाँच वायु (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) पर इसका गहरा प्रभाव; उनके असंतुलन से उत्पन्न दोषों के निराकरण में सहायक । पेट से संबंधित सभी रोग
5- मस्तिष्क और मानसिक विकारों पर प्रभाव—सिरदर्द, माइग्रेन, चक्कर, अनिद्रा, चिंता, अवसाद आदि ।
प्राणायाम के विज्ञान में ‘कुंभक’ वह क्षण होता है, जब साँस न भीतर जाती है, न बाहर आती है—बस रुक जाती है। यह अल्पविराम या पूर्णविराम की तरह है, जो जीवन की गति में ठहराव लाता है, समझ को जन्म देता है। जैसे भाषा में विराम के बिना अर्थ नहीं बनता, वैसे ही जीवन में भी बिना रुके, बिना ठहरे, किसी अनुभव की गहराई तक पहुँचना संभव नहीं।
कल्पना कीजिए, आप एक लेख पढ़ रहे हैं जिसमें कोई विराम-चिन्ह नहीं—क्या आप अर्थ निकाल पाएँगे? जैसे चलते हुए आपका पाँव ज़मीन को छुए बिना आगे नहीं बढ़ सकता, वैसे ही प्राणायाम में भी साँसों का आवागमन बिना रुके नहीं होता। श्वास भीतर जाती है, फिर रुकती है; फिर बाहर आती है, और फिर रुकती है। यही क्षण—यह ठहराव ही ‘कुंभक’ है।
कुंभक का द्वैत्य स्वरूप: स्वाभाविक और ऐच्छिक
कुंभक दो प्रकार के होते हैं—स्वाभाविक और ऐच्छिक।
स्वाभाविक कुंभक वह है जो बिना प्रयास के, सहज रूप से घटित होता है। पूरक (inhalation), रेचक (exhalation) तथा रेचक और पूरक के मध्य की यह विराम अनिवार्य है। यह अनिवार्य विराम व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है—यदि उसका मन गंभीर और एकाग्र है, तो स्वाभाविक रूप से यह अल्प विराम (कुंभक) लंबा और गहन होगा। जब मन स्थिर होता है, तो साँसें भी स्वभावतः स्थिर होती हैं। ज्ञान योग में बुद्धि विवेक के अभ्यास से मन को शांत और स्थिर करके श्वास प्रश्वास के मध्य होंगे वाले इस विराम को सहज रूप से बढ़ा दिया जाता है । यद्यपि कुंभक की वृद्धि साधक का लक्ष्य नहीं है , लक्ष्य बुद्धि विवेक की जागृति है जिससे मन शांत होता है , विचाररहित होता है । इस अवस्था में आने पर कुंभक स्वाभाविक रूप में घटित होने लगता है ।
ऐच्छिक कुंभक, वह है जिसे योगी, साधक प्राणायाम के अभ्यास में जान-बूझकर अभ्यास करता है। प्राणायाम की साधना में यह अभ्यास साधना की उच्च भूमि कहलाती है, जहाँ श्वास को नियंत्रित कर ऊर्जा को सहेजा और संचालित किया जाता है । इसे दो भागों में समझा जाता है—अंतःकुंभक और बाह्यकुंभक।
अंतर्कुम्भक में श्वास को अंदर रोकना होता है। इससे ऊर्जा का संचय होता है, फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है और आंतरिक अग्नि जाग्रत होती है।
बहिर्कुम्भक में श्वास बाहर छोड़ने के बाद उसे रोकना होता है, जिससे छोड़ने व त्यागने की वृत्ति को दृढ़ किया जाता है । यह वृत्ति ही साधक व रोगी को उन सभी मानसिक अवरोधों और रोगों से मुक्ति देने में सहयोग करता है ।
जैसे भोजन के पाचन के लिए समय और स्थिरता चाहिए, वैसे ही श्वास के भीतर लिए गए प्राण की ‘पाचन-क्रिया’ के लिए कुंभक की आवश्यकता होती है। यह श्वास का पाचन ही जीवन का परिष्कार है। योगी इस ‘ठहराव’ को ही ऊर्जा और चैतन्य की कुंजी मानते हैं।
गंभीर दृष्टिकोण: कुंभक केवल श्वास नहीं, समझ है ।
जब कुंभक को केवल श्वास की प्रक्रिया न मानकर ज्ञान और अंतर्दृष्टि का साधन माना जाता है, तब यह अभ्यास योग से दर्शन की ओर बढ़ जाता है। यह ठहराव केवल श्वास का ही नहीं होता, बल्कि चित्त का होता है। जिसके द्वारा ठहराव और समझ उत्पन्न होती है जहाँ गति रुकती है। ध्यान दें गति के केंद्र में एक ऐसा बिंदु है जो स्थिर ही । इसे ही कुम्भक के माध्यम से समझा जाता है ।
इसीलिए मेरा अनुभव कहता है कि विराम की अवधि जितनी छोटी होगी, समझ उतनी ही सीमित होगी व इसके विपरीत समझ जितनी सीमित होगी उतनी ही विराम (कुंभक) की अवधि स्वतः ही बढ़ जाएगी ।
और जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ेगी, विराम की गहराई और अवधि भी बढ़ती जाएगी। यही कारण है कि कुंभक का अभ्यास धीरे-धीरे चित्त की स्थिरता में परिवर्तित हो जाता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुंभक
कुंभक केवल योगशाला का अभ्यास नहीं, बल्कि जीवन की प्रत्येक गतिविधि में चेतन ठहराव है—संवाद में, कार्य में, विचार में। कोई भी निर्णय बिना ठहरकर लिए नहीं जा सकता। कुंभक वह मौन है, जो स्पष्टता को जन्म देता है। यह अंतराल ही है जहाँ ज्ञान अंकुरित होता है।
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