स्वर योग विज्ञान (इड़ा पिंगला शुषुम्ना)
स्वर योग स्वयं में एक विज्ञान है जो ध्वनि एवं साँसों पर आधारित है । जहां तक स्वर शब्द का शाब्दिक अर्थ है वह सामान्यतः ध्वनि व किसी कंपन से लगाया जाता है किंतु स्वर योग में इसका अर्थ साँसों से भी है । सामान्यतः योग विज्ञान में स्वर योग को दोनों नाको से चलने वाली साँसों से जोड़ा जाता है । चूँकि दोनों नाक से साँसों के चलने का समय थोड़े समय के अंतराल में बदल जाता है । कभी दाहिनी नाक से और कभी कुछ समय के लिए बायीं नासिका से स्वास चलने लगती है । बहुत कम समय के लिए दोनों नासिका से साँस चलती है ।
ऐसा क्यों होता है इसका कोई आनुभविक विवेचन नहीं दिखता है किंतु मेरे अनुभव में स्वर का मूल अर्थ आवाज़ व ध्वनि ही है जो मस्तिष्क के अंदर स्वतः स्वाभाविक व अनैच्छिक रूप से चल रहा होता है । यह ध्वनि मस्तिष्क के बाएँ, मध्य तथा दाहिने पटल में समयानुसार बदलता रहता है । कुछ योगियों के अनुसार एक से डेढ़ घंटे के बाद इसके चक्र में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होता रहता है जो मन मस्तिष्क व देह के निरोगी होने लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है । बिलकुल वैसे ही जैसे टहलते समय एक हाँथ आगे और एक हाँथ पीछे तथा उसी के अनुसार पैर भी चल रहे होते हैं । वह इसलिए क्योंकि ऐसा करने से एक हाँथ सक्रिय और दूसरा हाँथ निष्क्रिय अवस्था में चला जाता है । इसी से उसे थकान नहीं होने पाती है ।
उसी तरह मस्तिष्क भी अपने दोनों पटलों को एक साथ उपयोग में नहीं लाता , वह कुछ घंटे के अंतराल के बाद सक्रियता का काल बदल देता है । यही मस्तिष्क के वर्षों वर्षों तक बिना रुके निरंतर कार्य करने की कला है ।
किन्तु जैसे जैसे व्यक्ति की अपने विषय में तार्किक व भावनात्मक एकाग्रता बढ़ती जाती है वैसे वैसे मस्तिष्क का कोई एक विशेष हिस्सा ही आवश्यकता से अधिक कार्य करने लगता है । जिसके कारण नाक में किसी एक विशेष नासिका से साँसों के चलने का प्रवाह बहुत देर तक निरंतर चलता जाता है । चूँकि मस्तिष्क का एक विशेष पटल आवश्यकता से अधिक कार्य कर रहा होता तो उसी के अनुरूप किसी एक ही नासिका से स्वास भी निरंतर चल रही होती है । यही से रोगों की शुरुआत होने लगती है ।
ध्यान दें दाहिने मस्तिष्क में भावनाओं व ध्वनि के प्रभावी होने पर बायीं नासिका से स्वास चलने लगती है बायें मस्तिष्क में भाव व ध्वनि के प्रभावी होने पर दाहिनी नासिका से स्वास चलने लगती है । दाहिने मस्तिष्क के अधिक प्रभावी होने पर मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा अर्थात् बायाँ मस्तिष्क ढीला और शांत रहता है । उस समय वह आराम और स्व-हीलिंग की अवस्था में होता । और इसी के विपरीत बाएँ मस्तिष्क के प्रभावी होने पर मस्तिष्क का दाहिना हिस्सा ढीला और शांत तथा स्व-हीलिंग अवस्था में होता है ।
कहने का मूल तत्पर्य यह है कि मस्तिष्क का एक पटल कार्य करने पर दूसरा पटल आराम करता है और दूसरे पटल के कार्य करने पर पहला वाला पटल आराम की अवस्था में होता है । इसी प्रक्रिया के तहत वह पूरे देह के समय अंगों को भी आराम और हीलिंग करवा रहा होता है । इसी के आधार पर मस्तिष्क में साँसों की अधिक मात्रा का भी प्रवेश करवाया जाता है । जैसे मस्तिष्क के दाहिने हिस्से पर कार्य का बोझ आने पर बायीं नासिका से साँसों का तेज़ी से आना और जाना प्रारंभ हो जाता है और दूसरी नासिका से साँसों की मात्रा का आना जाना बहुत सीमित हो जाता है । इसी प्रकार इसके उलट बायें मस्तिष्क के सक्रिय होने पर दाहिनी नासिका से साँसों का तेज़ी से आना और जाना प्रारंभ हो जाता है । और साथ में दूसरी नासिका बहुत धीरे धीरे चलने लगती है या बंद हो जाती है ।
यद्यपि वैज्ञानिक रूप से देखा जाये तो नासिका के अंदर किसी भी प्रकार का भौतिक अवरोध नहीं होता है किन्तु फिर भी एक नासिका में साँसों का अवरोध और दूसरी नासिका में साँसों की तेज़ी और कुछ घंटों में इसके उलट लक्षण दिखते हैं ।
योगी अनूप के द्वारा इसी गूढ़ विषय जो कि बहुत वृहद् है ,पर आने वाले वर्कशॉप में चिंतन प्रकट किया जाने वाला है । इनके द्वारा इस विषय पर अनेकों व्यावहारिक प्रश्न है जो कि अभी भी सुलस्झाए नहीं गये हैं, जिसे साधना के अनेकों योगिक आयामों के द्वारा बहुत आसानी से सुलझाए जा सकते हैं ।
मैंने अपनी साधना में स्वर योग से सम्बन्धित अनेकों अनेक प्रयोग किए हैं जिसमें से कुछ विशेष क्रियाओं और प्राणायामों को इस वर्कशॉप में व्यक्त करूँगा ।
रोग - स्वर योग में विचारों, भावनाओं तथा आहत और अनाहत ध्वनि का मस्तिष्क के दोनों पटलों पर अलग अलग तरह से पर प्रभाव पड़ता है । यद्यपि अनाहत ध्वनि मस्तिष्क के पैटर्न को एक से डेढ़ घंटे में बदल देती है । यहाँ पर अनाहत ध्वनि का मूल अर्थ है मस्तिष्क के अंदर स्वतः चलने वाली ध्वनि । इस ध्वनि से एक मस्तिष्क कुछ समय के बाद स्वयं अक्रिया अवस्था में आ जाता है और दूसरा मस्तिष्क सक्रिय अवस्था में आ जाता है । किंतु यह धीरे धीरे विचारों और भावनाओं के प्रभावी होते रहने से तथा एक उम्र के बढ़ने के बाद यह स्वतः स्फूर्ति ध्वनि आहत ध्वनि के आगे हार मान लेती है । क्योंकि हर पल यहाँ तक कि सोते समय भी सोच विचार के बाद ध्वनि जो मस्तिष्क में पैदा होती है वह साँसों की दिशा को बदल देती है । मस्तिष्क का पैटर्न जैसे ही बदलता है वैसे ही नासिका में साँस लेने का पैटर्न बदलता है और उसके बाद देह के अंदर फाइट और फ्लाइट तथा रेस्ट और डाइजेस्ट मोड आहत होने शुरू हो जाते हैं ।
कभी दाहिनी नाक से साँस और कभी बायीं नाक से साँस अधिक चलती है । ध्यान दें एक उम्र के पड़ाव के बाद आहत ध्वनि अर्थ जो ध्वनि हमने सोच विचार करके पैदा किया है उसका मस्तिष्क पर अधिक प्रभाव पड़ने लगता है जिसके कारण नासिका से साँसों की दिशा में बहुत तीव्र परिवर्तन होने लगता है । जो भी आप सोचते हैं अथवा सुनते हैं व अंदर ही अंदर विचार कर रहे होते हैं उसे कहीं न कहीं हम अंदर ही अंदर सुन भी रहे होते हैं । अर्थात् मस्तिष्क में ध्वनि की गतिविधियाँ बढ़ रही होती हैं । इसीलिए आधुनिक समय में अधिक तनाव वाले व्यक्तियों को कानों से निरंतर आवाज़ें सुनाई देती हैं । कहने का मूल अर्थ है कि बाहर से आयातित भावनात्मक ध्वनियों की मात्रा बढ़ने पर मस्तिष्क के दोनों पटलों के पैटर्न में बहुत तीव्र रूप से बदलाव देखे जा सकते हैं । यही पैटर्न नासिका के माध्यम से दिखता है । यदि किसी भावनात्मक ध्वनि की मात्रा में बहुत अधिकता है तब किसी एक नासिका से चलने वाली साँसें अपने समय के अनुसार नहीं बदलेंगी ।
एक दूसरे उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करते हैं । यदि कोई भी व्यक्ति बहुत डरा हुआ है तब किसी एक नासिका से साँसें जो चल रही है वह दूसरी नासिका में बदलाव नहीं होगा । वह इसीलिए क्योंकि मस्तिष्क का एक ही हिस्सा उन डरे हुए भावनाओं में संलग्न है । भविष्य में मस्तिष्क का अपना एक पैटर्न बन जाता है जिसके कारण धीरे धीरे रोग पैदा होने लगते हैं ।
ध्यान दें एक सामान्य व्यक्ति के लिए भावनाओं पर नियंत्रण करना आसान नहीं होता है , संभवतः इसीलिए देह में अनेकों रोग पनपने लगते हैं जैसे -
प्रयोग - बहुत सारे प्रयोगों में मैंने यह पाया कि मस्तिष्क के दाहिने, बायें व मध्य हिस्सों के पटल के सक्रियता की अवस्था में सोचने व विचरने का बहुत अधिक महत्व है । इन प्रयोगों के अनुभवों को इस प्वॉर्कशॉप में बताया जाएगा ।
इस वर्कशॉप में स्वर योग विज्ञान का विषय -
इड़ा का प्रभाव क्षेत्र - इड़ा का प्रभाव क्षेत्र देह के पश्चिम और दक्षिण दिशा में सर्वाधिक दिखता है । इसी दिशा को नियंत्रित करने पर मस्तिष्क पर प्रभाव । यद्यपि मस्तिष्क सूक्ष्म तंत्रिका तंत्र स्वतः ही इड़ा नाड़ी के माध्यम से देह के पश्चिम और दक्षिणी हिस्सों को नियंत्रित करती रहती है । और देह का पश्चिमी और दक्षिणी दिशा के माध्यम से इड़ा नाड़ी को मज़बूत करने का प्रयत्न किया जाता है । स्वर विज्ञान के द्वारा हम साँसों की दिशा बदल कर देह के पश्चिम और दक्षिण दिशा को बेहतर से बेहतर करते है जिससे वेगस नर्व्स पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । इड़ा नाड़ी के माध्यम से यहाँ तक कि दक्षिण दिशा का अंतिम द्वार गुद और मूत्र मार्ग को बहुत ही नियंत्रित कर लेता है । इसी नाड़ी के माध्यम से अपान समान को प्रभावित करते हुए अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों को आशनाई से ठीक किया जा सकता है । ध्यान दें इड़ा नाड़ी मस्तिष्क से चलते हुए संपूर्ण रीढ़ में ही विद्यमान रहता है । प्रभाव क्षेत्र भले ही देह के दक्षिण और पश्चिम में है किंतु अंतिम सद्प्रभाव दाहिने मस्तिष्क पर ही पड़ता है । और सबसे अच्छा प्रभाव वेगस नाड़ी पर तो पड़ता ही है ।
पिंगला का प्रभाव क्षेत्र - पिंगला नाड़ी का प्रभाव देह क्षेत्र के पूर्व और उत्तर दिशा पर होता है । इस दिशा का नियंत्रण आख़िर मस्तिष्क के बायें हिस्से से ही होता है । अर्थात् बायाँ मस्तिष्क देह के उत्तर और पूर्व दिशा अर्थात् सभी ज्ञानेद्रियों को सक्रिय किए रखता है । बाहर से प्राप्त ज्ञान को शरीर के अंदर प्रवेश करवाने में पूर्ण सक्षम भी दिखता है । यह बहुत व्यावहारिक मस्तिष्क है जो कार्य और कारण के नियमों को खोजते हुए आत्म शांति की प्राप्ति करता है । वह दाहिने मस्तिष्क की तरह संतुष्टि के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ किसी visualization का प्रयोग नहीं करता । मस्तिष्क के इस हिस्से का अति सक्रिय होना ख़तरनाक है किंतु संतुलित रूप से सक्रियता सर्वोत्तम है । इस सक्रियता से दाहिनी नासिका भी सक्रिय हो उठती है ।
शुषुम्ना नाड़ी का प्रभाव - योगियों ने इसका प्रभाव तो बहुत अच्छा नहीं बताया है किंतु मैंने अपने 38 वर्षों के आध्यात्मिक यात्रा के अनुभव में सबसे अच्छा आया है । क्योंकि यह मस्तिष्क के उस हिस्से को छूता है जो मध्य है , जो न तो दाहिने हिस्से पर अधिक है और ना ही बायें हिस्से पर । यह मस्तिष्क का वह मध्य हिस्सा है जो वस्तुतः सेंटर ऑफ़ ग्रेविटी है । जहां पर स्थिर हो जाने पर कोई भी भार ही नहीं होता है , जहां कोई भाव ही नहीं होता है । जहां पर स्थित होने पर सभी इंद्रिय चाहे वह ज्ञानेंद्रियाँ हो व कर्मेन्द्रियाँ हों वे स्वतः ही अपने स्वभाव के अनुसार कार्य कर रही होती हैं । यहीं पर मैंने समस्त उपलब्धियों को प्राप्त किया और बिना पढ़े उन सभी आध्यात्मिक दैहिक और मानसिक जैसे गंभीर समस्याओं का निराकरण किया । मैंने यहीं पर सबसे अधिक देह में हीलिंग को प्राप्त किया ।
इस वर्कशॉप में मैं उन सभी विषयों पर चर्चा करूँगा तथा यौगिक तथा आध्यात्मिक समाधान निकालने का प्रयत्न करूँगा ।
स्वर योग विज्ञान (इड़ा पिंगला शुषुम्ना)
स्वर योग स्वयं में एक विज्ञान है जो ध्वनि एवं साँसों पर आधारित है । जहां तक स्वर शब्द का शाब्दिक अर्थ है वह सामान्यतः ध्वनि व किसी कंपन से लगाया जाता है किंतु स्वर योग में इसका अर्थ साँसों से भी है । सामान्यतः योग विज्ञान में स्वर योग को दोनों नाको से चलने वाली साँसों से जोड़ा जाता है । चूँकि दोनों नाक से साँसों के चलने का समय थोड़े समय के अंतराल में बदल जाता है । कभी दाहिनी नाक से और कभी कुछ समय के लिए बायीं नासिका से स्वास चलने लगती है । बहुत कम समय के लिए दोनों नासिका से साँस चलती है ।
ऐसा क्यों होता है इसका कोई आनुभविक विवेचन नहीं दिखता है किंतु मेरे अनुभव में स्वर का मूल अर्थ आवाज़ व ध्वनि ही है जो मस्तिष्क के अंदर स्वतः स्वाभाविक व अनैच्छिक रूप से चल रहा होता है । यह ध्वनि मस्तिष्क के बाएँ, मध्य तथा दाहिने पटल में समयानुसार बदलता रहता है । कुछ योगियों के अनुसार एक से डेढ़ घंटे के बाद इसके चक्र में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होता रहता है जो मन मस्तिष्क व देह के निरोगी होने लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है । बिलकुल वैसे ही जैसे टहलते समय एक हाँथ आगे और एक हाँथ पीछे तथा उसी के अनुसार पैर भी चल रहे होते हैं । वह इसलिए क्योंकि ऐसा करने से एक हाँथ सक्रिय और दूसरा हाँथ निष्क्रिय अवस्था में चला जाता है । इसी से उसे थकान नहीं होने पाती है ।
उसी तरह मस्तिष्क भी अपने दोनों पटलों को एक साथ उपयोग में नहीं लाता , वह कुछ घंटे के अंतराल के बाद सक्रियता का काल बदल देता है । यही मस्तिष्क के वर्षों वर्षों तक बिना रुके निरंतर कार्य करने की कला है ।
किन्तु जैसे जैसे व्यक्ति की अपने विषय में तार्किक व भावनात्मक एकाग्रता बढ़ती जाती है वैसे वैसे मस्तिष्क का कोई एक विशेष हिस्सा ही आवश्यकता से अधिक कार्य करने लगता है । जिसके कारण नाक में किसी एक विशेष नासिका से साँसों के चलने का प्रवाह बहुत देर तक निरंतर चलता जाता है । चूँकि मस्तिष्क का एक विशेष पटल आवश्यकता से अधिक कार्य कर रहा होता तो उसी के अनुरूप किसी एक ही नासिका से स्वास भी निरंतर चल रही होती है । यही से रोगों की शुरुआत होने लगती है ।
ध्यान दें दाहिने मस्तिष्क में भावनाओं व ध्वनि के प्रभावी होने पर बायीं नासिका से स्वास चलने लगती है बायें मस्तिष्क में भाव व ध्वनि के प्रभावी होने पर दाहिनी नासिका से स्वास चलने लगती है । दाहिने मस्तिष्क के अधिक प्रभावी होने पर मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा अर्थात् बायाँ मस्तिष्क ढीला और शांत रहता है । उस समय वह आराम और स्व-हीलिंग की अवस्था में होता । और इसी के विपरीत बाएँ मस्तिष्क के प्रभावी होने पर मस्तिष्क का दाहिना हिस्सा ढीला और शांत तथा स्व-हीलिंग अवस्था में होता है ।
कहने का मूल तत्पर्य यह है कि मस्तिष्क का एक पटल कार्य करने पर दूसरा पटल आराम करता है और दूसरे पटल के कार्य करने पर पहला वाला पटल आराम की अवस्था में होता है । इसी प्रक्रिया के तहत वह पूरे देह के समय अंगों को भी आराम और हीलिंग करवा रहा होता है । इसी के आधार पर मस्तिष्क में साँसों की अधिक मात्रा का भी प्रवेश करवाया जाता है । जैसे मस्तिष्क के दाहिने हिस्से पर कार्य का बोझ आने पर बायीं नासिका से साँसों का तेज़ी से आना और जाना प्रारंभ हो जाता है और दूसरी नासिका से साँसों की मात्रा का आना जाना बहुत सीमित हो जाता है । इसी प्रकार इसके उलट बायें मस्तिष्क के सक्रिय होने पर दाहिनी नासिका से साँसों का तेज़ी से आना और जाना प्रारंभ हो जाता है । और साथ में दूसरी नासिका बहुत धीरे धीरे चलने लगती है या बंद हो जाती है ।
यद्यपि वैज्ञानिक रूप से नासिका के अंदर किसी भी प्रकार का भौतिक अवरोध नहीं होता है किन्तु फिर भी एक नासिका में साँसों का अवरोध और दूसरी नासिका में साँसों की तेज़ी और कुछ घंटों में इसके उलट लक्षण दिखते हैं ।
योगी अनूप के द्वारा इसी गूढ़ विषय जो कि बहुत वृहद् है ,पर आने वाले वर्कशॉप में चिंतन प्रकट किया जाने वाला है । इनके द्वारा इस विषय पर अनेकों व्यावहारिक प्रश्न है जो कि अभी भी सुलस्झाए नहीं गये हैं, जिसे साधना के अनेकों योगिक आयामों के द्वारा बहुत आसानी से सुलझाए जा सकते हैं ।
मैंने अपनी साधना में स्वर योग से सम्बन्धित अनेकों अनेक प्रयोग किए हैं जिसमें से कुछ विशेष क्रियाओं और प्राणायामों को इस वर्कशॉप में व्यक्त करूँगा ।
रोग - स्वर योग में विचारों, भावनाओं तथा आहत और अनाहत ध्वनि का मस्तिष्क के दोनों पटलों पर अलग अलग तरह से पर प्रभाव पड़ता है । यद्यपि अनाहत ध्वनि मस्तिष्क के पैटर्न को एक से डेढ़ घंटे में बदल देती है । यहाँ पर अनाहत ध्वनि का मूल अर्थ है मस्तिष्क के अंदर स्वतः चलने वाली ध्वनि । इस ध्वनि से एक मस्तिष्क कुछ समय के बाद स्वयं अक्रिया अवस्था में आ जाता है और दूसरा मस्तिष्क सक्रिय अवस्था में आ जाता है । किंतु यह धीरे धीरे विचारों और भावनाओं के प्रभावी होते रहने से तथा एक उम्र के बढ़ने के बाद यह स्वतः स्फूर्ति ध्वनि आहत ध्वनि के आगे हार मान लेती है । क्योंकि हर पल यहाँ तक कि सोते समय भी सोच विचार के बाद ध्वनि जो मस्तिष्क में पैदा होती है वह साँसों की दिशा को बदल देती है । मस्तिष्क का पैटर्न जैसे ही बदलता है वैसे ही नासिका में साँस लेने का पैटर्न बदलता है और उसके बाद देह के अंदर फाइट और फ्लाइट तथा रेस्ट और डाइजेस्ट मोड आहत होने शुरू हो जाते हैं ।
कभी दाहिनी नाक से साँस और कभी बायीं नाक से साँस अधिक चलती है । ध्यान दें एक उम्र के पड़ाव के बाद आहत ध्वनि अर्थ जो ध्वनि हमने सोच विचार करके पैदा किया है उसका मस्तिष्क पर अधिक प्रभाव पड़ने लगता है जिसके कारण नासिका से साँसों की दिशा में बहुत तीव्र परिवर्तन होने लगता है । जो भी आप सोचते हैं अथवा सुनते हैं व अंदर ही अंदर विचार कर रहे होते हैं उसे कहीं न कहीं हम अंदर ही अंदर सुन भी रहे होते हैं । अर्थात् मस्तिष्क में ध्वनि की गतिविधियाँ बढ़ रही होती हैं । इसीलिए आधुनिक समय में अधिक तनाव वाले व्यक्तियों को कानों से निरंतर आवाज़ें सुनाई देती हैं । कहने का मूल अर्थ है कि बाहर से आयातित भावनात्मक ध्वनियों की मात्रा बढ़ने पर मस्तिष्क के दोनों पटलों के पैटर्न में बहुत तीव्र रूप से बदलाव देखे जा सकते हैं । यही पैटर्न नासिका के माध्यम से दिखता है । यदि किसी भावनात्मक ध्वनि की मात्रा में बहुत अधिकता है तब किसी एक नासिका से चलने वाली साँसें अपने समय के अनुसार नहीं बदलेंगी ।
एक दूसरे उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करते हैं । यदि कोई भी व्यक्ति बहुत डरा हुआ है तब किसी एक नासिका से साँसें जो चल रही है वह दूसरी नासिका में बदलाव नहीं होगा । वह इसीलिए क्योंकि मस्तिष्क का एक ही हिस्सा उन डरे हुए भावनाओं में संलग्न है । भविष्य में मस्तिष्क का अपना एक पैटर्न बन जाता है जिसके कारण धीरे धीरे रोग पैदा होने लगते हैं ।
ध्यान दें एक सामान्य व्यक्ति के लिए भावनाओं पर नियंत्रण करना आसान नहीं होता है , संभवतः इसीलिए देह में अनेकों रोग पनपने लगते हैं जैसे -
प्रयोग - बहुत सारे प्रयोगों में मैंने यह पाया कि मस्तिष्क के दाहिने, बायें व मध्य हिस्सों के पटल के सक्रियता की अवस्था में सोचने व विचरने का बहुत अधिक महत्व है । इन प्रयोगों के अनुभवों को इस प्वॉर्कशॉप में बताया जाएगा ।
इस वर्कशॉप में स्वर योग विज्ञान का विषय -
इड़ा का प्रभाव क्षेत्र - इड़ा का प्रभाव क्षेत्र देह के पश्चिम और दक्षिण दिशा में सर्वाधिक दिखता है । इसी दिशा को नियंत्रित करने पर मस्तिष्क पर प्रभाव । यद्यपि मस्तिष्क सूक्ष्म तंत्रिका तंत्र स्वतः ही इड़ा नाड़ी के माध्यम से देह के पश्चिम और दक्षिणी हिस्सों को नियंत्रित करती रहती है । और देह का पश्चिमी और दक्षिणी दिशा के माध्यम से इड़ा नाड़ी को मज़बूत करने का प्रयत्न किया जाता है । स्वर विज्ञान के द्वारा हम साँसों की दिशा बदल कर देह के पश्चिम और दक्षिण दिशा को बेहतर से बेहतर करते है जिससे वेगस नर्व्स पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । इड़ा नाड़ी के माध्यम से यहाँ तक कि दक्षिण दिशा का अंतिम द्वार गुद और मूत्र मार्ग को बहुत ही नियंत्रित कर लेता है । इसी नाड़ी के माध्यम से अपान समान को प्रभावित करते हुए अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों को आशनाई से ठीक किया जा सकता है । ध्यान दें इड़ा नाड़ी मस्तिष्क से चलते हुए संपूर्ण रीढ़ में ही विद्यमान रहता है । प्रभाव क्षेत्र भले ही देह के दक्षिण और पश्चिम में है किंतु अंतिम सद्प्रभाव दाहिने मस्तिष्क पर ही पड़ता है । और सबसे अच्छा प्रभाव वेगस नाड़ी पर तो पड़ता ही है ।
पिंगला का प्रभाव क्षेत्र - पिंगला नाड़ी का प्रभाव देह क्षेत्र के पूर्व और उत्तर दिशा पर होता है । इस दिशा का नियंत्रण आख़िर मस्तिष्क के बायें हिस्से से ही होता है । अर्थात् बायाँ मस्तिष्क देह के उत्तर और पूर्व दिशा अर्थात् सभी ज्ञानेद्रियों को सक्रिय किए रखता है । बाहर से प्राप्त ज्ञान को शरीर के अंदर प्रवेश करवाने में पूर्ण सक्षम भी दिखता है । यह बहुत व्यावहारिक मस्तिष्क है जो कार्य और कारण के नियमों को खोजते हुए आत्म शांति की प्राप्ति करता है । वह दाहिने मस्तिष्क की तरह संतुष्टि के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ किसी visualization का प्रयोग नहीं करता । मस्तिष्क के इस हिस्से का अति सक्रिय होना ख़तरनाक है किंतु संतुलित रूप से सक्रियता सर्वोत्तम है । इस सक्रियता से दाहिनी नासिका भी सक्रिय हो उठती है ।
शुषुम्ना नाड़ी का प्रभाव - योगियों ने इसका प्रभाव तो बहुत अच्छा नहीं बताया है किंतु मैंने अपने 38 वर्षों के आध्यात्मिक यात्रा के अनुभव में सबसे अच्छा आया है । क्योंकि यह मस्तिष्क के उस हिस्से को छूता है जो मध्य है , जो न तो दाहिने हिस्से पर अधिक है और ना ही बायें हिस्से पर । यह मस्तिष्क का वह मध्य हिस्सा है जो वस्तुतः सेंटर ऑफ़ ग्रेविटी है । जहां पर स्थिर हो जाने पर कोई भी भार ही नहीं होता है , जहां कोई भाव ही नहीं होता है । जहां पर स्थित होने पर सभी इंद्रिय चाहे वह ज्ञानेंद्रियाँ हो व कर्मेन्द्रियाँ हों वे स्वतः ही अपने स्वभाव के अनुसार कार्य कर रही होती हैं । यहीं पर मैंने समस्त उपलब्धियों को प्राप्त किया और बिना पढ़े उन सभी आध्यात्मिक दैहिक और मानसिक जैसे गंभीर समस्याओं का निराकरण किया । मैंने यहीं पर सबसे अधिक देह में हीलिंग को प्राप्त किया ।
इस वर्कशॉप में मैं उन सभी विषयों पर चर्चा करूँगा तथा यौगिक तथा आध्यात्मिक समाधान निकालने का प्रयत्न करूँगा ।
Copyright - by Yogi Anoop Academy