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“Human Vastu” मानव वास्तु वर्कशॉप

मानव वास्तु वर्कशॉप का प्रमुख विषय:

सैद्धांतिक व्यावहारिक समझ (Theoretical & Practical Understanding)

1-परिचय: मानव वास्तु क्या है?  शरीर के प्रमुख वास्तु स्थल । पंचतत्वों और दिशाओं का महत्व, वास्तु और मानव शरीर का पारस्परिक संबंध ।

2- ब्रह्मस्थान (नाभि क्षेत्र): ऊर्जा का केंद्र, उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशा का महत्व और होने वाले असंतुलन का योग प्राणायाम ध्यान और दनिक दिनचर्या के उपायों के माध्यम से निवारण । इससे संबंधित आसन प्राणायाम और ध्यान ।

3- ईशान कोण (ज्ञानेंद्रियाँ): बाहरी ज्ञान के द्वार । अस्तित्व अनुभूति । विवेक ज्ञान । दोषों के निवारण में ज्ञान, विवेक , प्राणायाम इत्यादि साधन ।  

4- आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व): पाचन और ऊर्जा उत्पादन । भौतिक ऊर्जा स्रोत । निवारण में आसन और  प्राणायाम   

5- नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम): स्थिरता और आत्मविश्वास, निष्कासन , आधार । निवारण में आसन और प्राणायाम । 

6- वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम): संचार और त्वचा । हीलिंग । निवारण में आसन और प्राणायाम 


मानव वास्तु: एक जीवित वास्तु:

वास्तु शब्द संस्कृत के “वस्” (वसति) धातु से उत्पन्न हुआ है, जिसका मूल अर्थ है “रहना”, “बसना” या “आवास करना”, जहाँ जीवन और ऊर्जा समरसता में प्रवाहित होती है।

अर्थात् ऐसा भवन (शरीर) जिसमें पाँचों तत्व इतनी समन्वयता से रहें कि रहने वाला “मैं” स्थिरता, प्रसन्नता, समृद्धि का अनुभव करे । आवास की आवश्यकता इसीलिए होती है कि वह स्थिरता का अनुभव करे और यह देह ही एक ऐसा आवास है, जो “मैं” को पूर्ण स्थिरता दे सकती है। इसीलिए वास्तु में देह को भवन के रूप में देखा जाता है । 

किंतु अज्ञानतावश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस भवन (देह) वाह्य एवं आंतरिक कारणों से ऊर्जा के प्रवाह में  असंतुलन हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप “मैं” इस भवन  (देह) में रोग व कष्ट का अनुभव करता है। जैसे कोई घर टूटता व गिरता है तब उस घर को कष्ट नहीं होता है , बल्कि उस घर के स्वामी को कष्ट होता है उसी प्रकार इस देह रूपी भवन के कष्ट में आने पर देह को कष्ट न होकर इस देह के अनुभवकर्ता को कष्ट होता है । 

 इसीलिए मानव वास्तु विज्ञान कहता है कि कुछ ऐसे वाह्य और आंतरिक उपाय करो कि यह दैहिक भवन रोगरहित हो और इसके स्वामी को कष्ट न हो । 

इसीलिए मैं “Human Vastu” व मानव शरीर वास्तु विज्ञान को एक आध्यात्मिक, दार्शनिक जीवित वास्तु विज्ञान के रूप में मैं देखता हूँ। यह आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तर्कसंगत अवधारणा पर आधारित है, जहाँ मानव शरीर को एक वास्तु संरचना के रूप में देखा जाता है, जिसमें पंचतत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) और दिशाओं का संतुलन आपके जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। यह देह, वास्तु विज्ञान की एक सर्वोच्च आदर्श रूप में प्रकृति प्रदत्त वास्तुरचित भवन है। इसमें किसी भी प्रकार के वास्तु दोष नहीं होते हैं। किंतु ध्यान दें, इसके वास्तु में दोष अज्ञानता के कारण ही पैदा होते हैं। यही रोग अशांति का कारण बनता है।

मानव शरीर: एक जीवित वास्तु

यदि हम शरीर को एक भवन के रूप में स्वीकार करें, तो प्रत्येक दिशा और प्रत्येक तत्व का उसमें विशेष स्थान है: 

उत्तर दिशा: शरीर का मध्यभाग (नाभि), जिसे मैं ब्रह्मस्थान के रूप में देखता हूँ। इस ब्रह्मस्थान से ऊपर उत्तर का भाग, अर्थात् पूर्ण उत्तर की दिशा में मस्तिष्क स्थित है। इसी दिशा में जल की मात्रा का प्रभाव होता है। अर्थात् उत्तर की दिशा से जल के प्रभाव से जो भी वायु दक्षिण की तरफ़ बहती है, वह रोग का क्षरण करने वाला ही होता है।

इस देह रूपी आवास में प्रवेश द्वार ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) ही होता है, जिसे पाँच ज्ञानेंद्रियों के रूप में देखते हैं। ये पाँचों इंद्रियाँ उत्तर और पूर्व दिशा में स्थित हैं और इन्हीं प्रवेश द्वारों से बाह्य संसार से ज्ञान अंदर प्रवेश करता है। इसकी गंभीर चर्चा वर्कशॉप में की जाएगी।

दक्षिण दिशा: ब्रह्मस्थान के निचले स्थान की ओर दक्षिण दिशा स्थित है। यह दिशा अपान वायु से संचालित होता है।

• दक्षिण (South): स्थिरता, शक्ति और आत्मविश्वास का क्षेत्र। वह इसलिए क्योंकि यह दिशा निष्कासन का सूचक है।

• दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण): अग्नि तत्व का स्थान, ऊर्जा और पाचन शक्ति का केंद्र।

• दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण): सुरक्षा, स्थायित्व और मजबूती का स्थान।

इन सभी कोणों पर विस्तृत विचार होगा, जिसमें रोगों और रोगों के निवारण पर भी चर्चा होगी।

पूर्व दिशा: देह का अगला हिस्सा पूर्व दिशा कहलाता है, जो चेहरे से लेकर शरीर के सभी अगले हिस्से को सम्मिलित करता है।

• पूर्व (East): सूर्य की ऊर्जा, स्वास्थ्य और चेतना का क्षेत्र। क्योंकि यह स्थल दृश्यमान है। इसे इंद्रियों के माध्यम से साक्षात देखा और अनुभव किया जा सकता है।

पश्चिम दिशा: देह का पिछला (पीठ) हिस्सा पश्चिम के हिस्से के रूप में देखा जाता है। इस पश्चिमी हिस्से में पूरी रीढ़ का हिस्सा सम्मिलित होता है।

इन्हीं चारों दिशाओं को आधार बनाकर कई कोण बनाए जाते हैं और इन्हीं के आधार पर योग आसनों का निर्माण योगियों और ऋषियों के द्वारा हुआ, साथ में प्राणायाम, बंध और मुद्राओं की भी उत्पत्ति हुई। यहाँ तक कि ध्यान में भी इन्हीं दिशाओं को ध्यान में रखकर अभ्यास किया जाता है, जिसका विवरण हम इस वर्कशॉप में करेंगे।

शरीर वास्तु में दोष होने पर रोग

1. ईशान कोण (उत्तर-पूर्व):

यह दिशा शरीर में चेहरे और ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित है। इस क्षेत्र में भारीपन का मूल अर्थ है कि इस भवन में बैठा हुआ स्वामी “मैं” स्वयं को असहज महसूस करेगा। इसी के विपरीत, चेहरे वाले क्षेत्र की स्वच्छता और हल्कापन मानसिक स्पष्टता, शांति और आध्यात्मिक जागरूकता को जन्म देता है।

2. अग्नि कोण (दक्षिण-पूर्व):

यह क्षेत्र पाचन तंत्र और ऊर्जा उत्पादन का केंद्र है। यदि यह असंतुलित होता है, तो जीवन में उत्साह और कार्यक्षमता प्रभावित होती है। साथ-साथ अनियंत्रित काम वासना का प्रकोप सर्वाधिक हो जाता है। इस भवन का स्वामी “मैं” की प्रमुख प्राथमिकता इसी आग्नेय कोण पर केंद्रित हो जाने से कई भयानक रोग हो जाते हैं, जिसका वर्णन वर्कशॉप में होगा।

3. नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम):

यह शरीर के मूलाधार, स्वाधिष्ठान चक्र से जुड़ा है, जो स्थिरता और आत्मविश्वास प्रदान करता है। यही स्थल पूरे देह के भार को उठाने में सक्षम होता है। यह पृथ्वी तत्व को इंगित करता है। इसके असंतुलित होने पर “मैं” भवन में असुरक्षित, भयाक्रांत अनुभव करता है, जिससे मानसिक थकान का अनुभव होता है।

4. वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम):

यह क्षेत्र फेफड़ों, त्वचा और संचार प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है।

• वायु (Vayu): जिसका अर्थ है हवा या पवन, जो गति, परिवर्तन और संचार का प्रतीक है।

• व्य (Vya): जिसका अर्थ है फैलाव या विस्तार।

इस प्रकार, वायव्य का शाब्दिक अर्थ है “वायु का क्षेत्र” या “जहाँ वायु का विस्तार होता है”। यदि यह क्षेत्र संतुलित न हो, तो व्यक्ति बेचैनी, चंचलता और अस्थिरता, हमेशा कुछ न कुछ कमी होने का अनुभव करता है।

5. मध्य भाग (नाभि क्षेत्र):

यह शरीर का केंद्र बिंदु है, जहाँ से ऊर्जा का प्रवाह पूरे शरीर में होता है। यहीं पर स्थितिज ऊर्जा होती है, जो गतिज ऊर्जा में रूपांतरित होती हुई दिखती है। इस क्षेत्र का संतुलन जीवन में ऊर्जा के सभी क्षेत्रों में समरसता स्थापित करता है। मेरे अनुभव में यही सभी दिशाओं को अप्रत्यक्ष रूप से ऊर्जा के रूप में दिशा-निर्देश करती है।

इस बार मैंने केवल व्याकरणिक अशुद्धियों को ठीक किया है, किसी भी वाक्य संरचना, शब्द चयन या अर्थ में कोई बदलाव नहीं किया है। कृपया इसे ध्यानपूर्वक पढ़ें और यदि अब भी कोई परिवर्तन दिखे, तो मुझे सूचित करें।

Human Vastu मानव वास्तु वर्कशॉप

Content Hours: 3 hour(s)
Fee: 2100/-
Duration : 1 Days
From 2025-03-15 To 2025-03-15

Copyright - by Yogi Anoop Academy