इस कोर्स में सम्मिलित विषय -
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रदत्त सूत्रों का मन मस्तिष्क और देह पर किस प्रकार से प्रयोग किया जिससे आत्म ज्ञान संभव तो हो ही साथ साथ उनके रोगों का भी निराकरण हो सके । इसीलिए योगी अनूप जी ने महर्षि के सूत्रों पर स्वयं का अनुभव आप के समझ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया । इसमें उनके द्वारा कुछ विषय निम्नलिखित है - आत्मज्ञान के लिए सभी मार्ग पर चर्चा और उसका प्रयोग । आत्मा, मन, इंद्रियों और देह से संबंधित सूक्ष्म विषयों पर चर्चा और समाधान । समाधान के कई भिन्न भिन्न तरीक़े जो महर्षि जी ने प्रदान किया है , उस पर गहन व्याख्या और प्रयोग कैसे किए जाएँ । आत्मज्ञान व आत्मानुभव के न होने से क्या क्या मानसिक समस्याएँ हो सकतीं हैं
जीवन का उद्देश्य । आत्मानुभव के न होने से मन,मस्तिष्क और देह से संबंधित रोग पर व्याख्या और समाधान ।
पतंजलि योग-दर्शन
यहाँ दर्शन शब्द को पहले समझने का प्रयत्न करें । दर्शन शब्द का मूल अर्थ है देखना । देखने शब्द का तात्पर्य सिर्फ़ सामान्य देखने (आँखों) मात्र से नहीं है, बल्कि इसका अर्थ बहुत ही गहन है ।अति सामान्य व्यक्ति देखने शब्द का अर्थ सिर्फ़ आँखों से ही देखने को समझता है किंतु दर्शन में इसका तत्पर्य बहुत अत्यंत गहन और सूक्ष्म होता है ।
इसमें न केवल सिर्फ़ एक इंद्रिय से देखने की बात की जाती है बल्कि सभी इंद्रियों के माध्यम से दृश्य और अदृश्य वस्तु को देखने की बात की जाती है । यहाँ तक कि देखने वाले अर्थात् दृष्टा (आत्म दर्शन) को भी देखने की बात की जाती है । दृष्टा दृश्य को तो देखता ही है, साथ साथ दृश्य के माध्यम से स्वयं को भी देखता है । दृश्य देखने दर्शन नहीं कहा जाता है बल्कि दृश्य के माध्यम से द्रष्टा को देखने को दर्शन कहा जाता है । जब हम किसी भी अन्य व्यक्ति व वस्तु को देखते हैं तो वहाँ पर दो तत्व ज्ञान होता है । पहला वस्तु जिसे देखा था उसका ज्ञान होता है और दूसरा जिसने देखा अर्थात् देखने वाले को स्वयं का भी ज्ञान हो जाता है ।
दृष्टा, दृश्य के अस्तित्व का दर्शन (अनुभव) करने के साथ साथ स्वयं (दृष्टा) के अस्तित्व का भी अनुभव कर लेता है । यही दर्शन है । मूलतः दृष्टा का दृश्य के द्वारा स्वयं के अस्तित्व का अनुभव करना ही दर्शन कहलाता है ।
समझने का प्रयत्न करें - बिना दृश्य के द्रष्टा का अस्तित्व अनुभव संभव नहीं और बिना दृष्टा के दृश्य के अस्तित्व का ज्ञान संभव नहीं । इसीलिए दार्शनिकों ने इसे तत्व विज्ञान कहा । कहने का मूल अर्थ है 2 तत्व हैं , एक द्रष्टा और दूसरा दृश्य । एक देह (दृश्य) और दूसरा देह का अनुभव करने वाला द्रष्टा । जब तक देह का अनुभव करते हैं तब तक उसे दर्शन नहीं कहलाया जा सकता है , किंतु जैसे ही देह के माध्यम से देह का स्वामी स्वयं का अनुभव करने लगता है तब वह दर्शन कहलाता है ।
अब योग शब्द का अर्थ समझें -
सामान्य अर्थों में इसे जुड़ना (द्रष्टा का दृश्य से जुड़ना) कहते हैं किंतु सूक्ष्म अर्थों में दृष्टा का दृश्य से अलगाव (चित्त से वृत्तियों का अलगाव) ही योग है । द्रष्टा जब दृश्य के माध्यम से स्वयं का अनुभव लगता है तो इसका अर्थ है कि उसने स्वयं को दृश्य से अलग कर लिया है । व्यक्ति दर्पण के सामने दर्पण को नहीं बल्कि स्वयं को देखता है । उसका ध्यान स्वयं पर है ना कि दर्पण पर । उसने स्वयं को दर्पण से अलग कर लिया है किंतु दर्पण को माध्यम बना कर स्वयं का अनुभव कर रहा है । यही पूर्ण योग है । मूल अर्थ है कि स्वयं का अनुभव करने के लिए देह का उपयोग करके देह को गौड़ कर दो ।
महर्षि पतंजलि ने अलगाव होने को ही योग कहा है ना कि जुड़ने को । जैसे चित्त से वृत्तियों का अलग हो जाना ही योग है । बचपन व अज्ञानता की अवस्था में हम जुड़ने से प्रसन्न होते हैं किंतु एक उम्र के जुड़ने की लत इतनी अधिक और बुरी हो जाती कि मन मस्तिष्क और देह में असंतुलन पैदा होने लगता है । इसीलिए महर्षि पतंजलि व अन्य दार्शनिकों ने जुड़ने को मोक्ष नहीं कहा , उन्होंने अलगाव को मोक्ष कहा । जब व्यक्ति स्वयं को अनुभव करने लगता है तब वह स्वयं के स्वरूप में स्थित हो जाता है तब स्वतः ही वाह्य दृश्य गौंड हो जाते हैं । उस काल में सभी वस्तुएँ छूट जाती हैं । यही योग है ।
योग दर्शन का अध्ययन क्यों करें !
मेरे आध्यात्मिक अनुभव में उम्र के एक पड़ाव के बाद स्वयं का अनुभव अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए । ‘मैं’ का प्रमुख ध्येय स्वयं का ही अनुभव करना है , जैसे दर्पण देखने का प्रमुख लक्ष्य दर्पण देखना नहीं बल्कि स्वयं को ही देखना होता है । वैसे ही संपूर्ण जीवन में सभी क्रियाओं का लक्ष्य स्वयं की अनुभूति करना ही होता है । किंतु सामान्य मन वस्तु के अनुभव में लिप्त होकर वस्तु का लती बन जाता है । चूँकि वस्तु से ख़ुशियाँ मिलती है इसलिए वस्तु का आकार मन में लिये घूमता है । चूँकि वस्तु में ही अनुभव छिपा है इसलिए उसमें मन की लिप्पतता स्वाभाविक दिखती है ।
किंतु समस्या यहाँ इसलिए होती है कि व्यक्ति वस्तु के रूप रंग और आकार को ही मन में हमेशा लिए घूमता है जो भविष्य में उसके लिए बड़ी समस्या का कारण बन बैठता है । मानसिक ही नहीं बल्कि दैहिक समस्याओं का जन्म भी होने लगता है । सिर्फ़ वस्तु का अनुभव होने के कारण स्वयं को हम गौंड कर देते हैं । इसीलिए स्वयं अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं होने पर उसके अंदर असंतुष्टि जन्म लेती है और यही असंतुष्टि उस स्थान को असंतुलित और रोगी बना देती जहां पर स्वयं (आत्मा) रहता है । अर्थात् मन, इंद्रियाँ और देह सभी असंतुलित होने लगती हैं । इसी को मैं रोग कहता हूँ ।
मेरा आध्यात्मिक दर्शन कहता है कि वस्तु का अनुभव करने वाला महत्वपूर्ण है । बिलकुल वैसे ही जैसे दर्पण वस्तु है और दर्पण में स्वयं का रूप रंग देख रहे हैं । दर्पण महत्वपूर्ण नहीं है , दर्पण को माध्यम बना कर स्वयं को अधिक महत्व दिया जा रहा ।
बिलकुल उसी प्रकार ‘मैं’ वस्तु को माध्यम बना कर स्वयं का अनुभव करता अर्थात् आत्मा जब वस्तु का अनुभव कर रही होती है तब वह स्वयं को अधिक महत्व देता है ना कि वस्तु को । इसी कारण वह वस्तु के प्रति आदती नहीं होने पाता है । वस्तु के प्रति मोह नहीं होने पाता है ।
मेरे अपने दर्शन में आत्मा का अज्ञानतावश व अल्पज्ञतावश दृश्य के प्रति बहुत झुकाव है , उसे यह भ्रम है कि दृश्य उसे पूर्ण संतुष्ट कर देगा जब कि द्रष्टा व आत्मा तभी पूर्ण संतुष्ट होते हैं जब दृश्य को छोड़ देते हैं ।
चूँकि उसने अज्ञानतावश संतुष्टि का मूल श्रोत दृश्य जगत् को मान बैठा है तभी उसकी निर्भरता उन वस्तुओं पर हो गई है और इसी को मैं अस्वस्थ अवस्था कहता है ।
मेरे अनुसार अस्वस्थ का मूल अर्थ है कि आत्मा जो अनुभव करने वाला है वह बाह्य वस्तुओं पर स्थित होने के प्रयत्न में है जो उसका मूल स्थान नहीं है । इसीलिए तो वह अस्वस्थ है । वह स्वस्थ तब कहलाती है जब वह स्वयं में स्थित होती है अर्थात् स्वयं का अनुभव करती है ।
यही अवस्था आत्म ज्ञान व आत्म दर्शन की अवस्था कहलाती है ।
मैंने महर्षि पतंजलि के दर्शन को इसीलिए चुना क्योंकि यह आत्म दर्शन व आत्मानुभव को बहुत गहनता के साथ व्यावहारिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयत्न करता है । मैंने इस दर्शन के माध्यम से मन की गहराई को और साथ साथ दैहिक समस्याओं के समाधान पर भी कार्य करने का प्रयत्न किया है ।
"Patanjali Yoga Philosophy"
Let's try to understand the word "philosophy" first. The root meaning of the word "philosophy" is to see. The word "seeing" doesn't merely refer to seeing with the eyes; its meaning is much deeper.
An ordinary person interprets "seeing" as seeing with the eyes alone, but in philosophy, it means seeing visible and invisible objects through all the senses. It even means seeing the seer (self-realization). The seer not only sees the seen but also sees oneself through the medium of the seen.
Seeing the seer through the seen is called "philosophy." When we see any other person or object, two elements of knowledge are involved. First, there is knowledge of the object that is seen, and second, there is knowledge of the seer (self).
The seer, in addition to seeing the seen, also experiences oneself. This is what philosophy is. Essentially, philosophy is the experience of the self through the medium of the seen.
Let's try to understand - without the existence of the seen, the experience of the seer is not possible, and without the existence of the seer, the knowledge of the seen is not possible. This is why philosophers call it the metaphysics.
The literal meaning is that there are two Tatva or existence in this universe: one is the seer, and the other is the seen. One experiences the body (the seen) and, at the same time, experiences oneself (the seer). When the seer starts experiencing oneself through the medium of the seen, it is called philosophy or Darshan.
Now, let's understand the word "YOGA."
In common terms, it is referred to as union (connecting the seer with the seen), but in subtle terms, it is the separation of the seer from the seen (dissociation of mental fluctuations).
In childhood and ignorance, we are pleased with association, but the habit of excessive and undesirable association becomes so strong and harmful that it creates an imbalance in the mind, intellect, and body. Therefore, Maharishi Patanjali and other philosophers did not call it union; they called it separation. The target of saadhak is separation from objects. But if we speak via passive side then we have to explain this join with yourself.
When a person begins to experience oneself, they are established in their true nature, and the external objects automatically become insignificant. At that time, all things are transcended. This is what yoga is.
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