सिर्फ़ गहरी नींद में जाने के लिए योग निद्रा की उत्पत्ति ऋषियों ने नहीं की । आनुभविक सत्य तो यह है कि नींद में जाकर उसे अनुभव करना कि वहाँ होता क्या है, इसके लिए इसकी खोज हुई । क्योंकि नींद में रहते हुए नींद को कोई अनुभव तो कर नहीं सकता है । बस नींद से उठने के बाद ही अनुभव होता है कि नींद अच्छी आयी या ख़राब । यदि अच्छी आती है तो पूरा दिन कितना अच्छा निकलता है किंतु वही यदि ख़राब आती है तब स्थिति बहुत चिड़चिड़ेपन वाली हो जाती है ।
मेरा अनुभव कहता है नींद के समय अंतरतम कहीं ना कहीं जागृत रहता है तभी तो उठने के बाद उसे अच्छा या बुरा लगता है । उसी अंतरतम को शवासन और योग निद्रा के माध्यम से इतना सचेत किया जाता है कि सभी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ और समस्त वैचारिक प्रक्रिया बंद हो जाने के बाद ‘मैं’ उन सभी सोते हुए अंगों का अनुभव करता रहता है । वह यह भी अनुभव करता रहता है कि वे सभी अंग उसके निरीक्षण में गहन निद्रा में शांत हो गये किन्तु मरे नहीं । उसे यह भी अनुभव हो रहा होता है कि वे सभी स्वयं को कैसे हील व रिचार्ज करते हैं ।
ध्यान दें वह ‘मैं’ जो देह और इंद्रिय के साथ नहीं सोया , वह देह, इंद्रिय और मस्तिष्क के सूक्षतम भागों का गवाह रहता है । वह यह अनुभव कर रहा होता है कि मस्तिष्क का सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग जब विचारों के टकराने से दूर हो जाता है तब स्वयं को प्रबल तरीक़े से रिचार्ज करना प्रारंभ कर देता है । वे सारे अंग , लिवर ही नहीं बल्कि देह के सभी प्रमुख अंग विचारों की ग़ुलामी से स्वतंत अनुभव करते हुए स्वयं को हील कर रहे होते हैं । वे सभी अंग कितने प्रसन्न होते हैं यह उसी नींद के समय ही उसका अनुभव पूर्ण रूप से वह कर रहा होता है । उस समय वह देख रहा होता है कि उसके ही देह के सभी अंग गुप चुप तरीक़े से कितने प्रसन्न और खुश हैं ।
जब मैं उन्हें उस अवस्था में देखता हूँ तो मुझे कितनी प्रसन्नता होती है कि अभी तक हमने इनके जीवन को नरक बना दिया था । लिवर का जीना हराम करा रखा था , उसे इतनी खाना दिया कि वह आराम ही न कर सका । ऐसे ही मस्तिष्क को , उसे तो विचारों से इतना घेरे रखा कि उसकी एक एक कोशिकाएँ चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि मुझे बक्स दो । आज मैं भी प्रसन्न हूँ क्योंकि मैंने यह सीख लिया कि किसी को तंग (देह के अंगों को) मत करो । मैंने यह सीख लिया कि स्वयं को अपनों से कैसे अलग कर लो । यही लक्ष्य है शवासन और योग निद्रा का ।
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