Loading...
...

योग मार्ग में 6 बाधक तत्व

2 years ago By Yogi Anoop

स्वामी स्वात्माराम के अनुसार योग मार्ग में 6 बाधक तत्व.

योग मार्ग की साधना में ही नहीं बल्कि सामान्य जीवन यापन के लिए भी कुछ नियमों की आवश्यकता होती है और कुछ ऐसे आदतें भी होती हैं जिसे हमें दूरी बनाए रखनी होती है । चूँकि वे आदतें बाधक तत्व होती हैं , वे स्वयं के दैहिक स्वास्थ्य की नहीं बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत हानिकारक होती हैं । सम्भवतः इसीलिए स्वामी स्वात्माराम ने अपने पुस्तक हठ योग प्रदीपिका में 6 आदतों को बाधक तत्व स्वीकार किया जो इस प्रकार हैं । 


  1. अधिक बोलना 

  2. अधिक भोजन

  3. अधिक लोक सम्पर्क

  4. अधिक श्रम 

  5. नियम पालन में आग्रह 

  6. मन की चंचलता 


1- अधिक बोलना 

सामान्य भाषा में इसे माउथ Diarrhea कहा जाता है । अधिक बोलने का अर्थ है झूठ बोलना, बहुत कल्पनाशील मन को ही अधिक बोलना पड़ता है,  ऐसे ही व्यक्तित्व झूठ बोलते हुए पाए जाते हैं , इस प्रकार के व्यक्ति अंदर अत्यंत भयभीत होते हैं किंतु बाहर से स्वयं को  निर्भयता के रूप में पेश करते  हैं । यद्यपि ऐसे लोगों की स्मृति बहुत तेज नहीं होती है क्योंकि ये इतनी तीव्रता में बोलते हैं कि ये क्या बोल गए इन्हें स्वयं को भी नहीं पता होता । इसीलिए ये भरोसेमंद भी नहीं होते हैं । इनकी आत्म संतुष्टि का स्तर बहुत कमतर होता है । 

 बोलने में अति करने वाले लोगों को रात में सोते समय ऐसिड reflux भी होता है , रात में ही सोते सोते गले में जलन होती है । दोनों दांतों को सोते सोते आपस में भींचते हुए देखे जाते हैं । इस प्रकार के लोग रात में भी बड़बड़ाते हुए पाए जाते हैं, ऐसा मेरा अपने शिष्यों पर अनुभव है । इसीलिए इसे बाधक तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है । ये साधकों के लिए तो बाधक है साथ साथ सामान्य लोगों के लिए भी घातक है । 


2- अधिक भोजन

अधिक बोलने वालों को अधिक भोजन भी करना पड़ता है क्योंकि जबड़े, जीभ और गले  का आवश्यकता से अधिक दुरुपयोग किया जाता है जिसके कारण इनमें थकान बहुत अधिक हो जाती है । इसीलिए इस प्रकार के लोगों को बार बार भोजन करना पड़ता है ,और भोजन में अति भी करनी पड़ती है ।  ऐसे स्वभाव के व्यक्तियों में बहुत जल्दी जल्दी भोजन करने की भी आदत होती है । जिसके कारण पाचन और निस्काशन से सम्बंधित सभी प्रमुख अंगों को कभी आराम मिल ही नहीं पाता है । इनके भोजन के गुणवत्ता में भी बहुत राजसिक और तामसिकता देखी जाती है क्योंकि मन मस्तिष्क को संतुष्टि इसी प्रकार के भोजन से ही मिलती है । भोजन ही नहीं बल्कि ऐसे स्वभाव के व्यक्तियों को बहुत नशायुक्त पेय पदार्थों की भी आवश्यकता होती है । 

इसीलिए स्वामी स्वात्माराम ने अधिक बोलना और अधिक भोजन दोनों को बाधक तत्व माना । 


3- अधिक लोक सम्पर्क

इंद्रियों को बाह्य समाज में इतना ही सम्पर्क रखना चाहिए जिससे उनके आत्म प्रगति में बाधा न आए । अधिक लोक सम्पर्क से सभी इंद्रियाँ बहिरुन्मुख होने लगती हैं जिससे स्वयं की शांति अस्थिर हो जाति है । यहाँ पर योगी जी का अर्थ यह कदापि नहीं कि लोक सम्पर्क बिलकुल भी नहीं करना चाहिए, यह सिर्फ़ साधकों के लिए ही बाधक होता है । सिद्ध होने के बाद यह बाधक नहीं रह जाता है । किंतु सिद्ध पुरुष भी बहुत अधिक लोक सम्पर्क करने पर दूषित लगते हुए देखे जाते हैं । 


4- अधिक श्रम -

यहाँ पर श्रम का तात्पर्य शारीरिक अभ्यास और किसी भी कार्य की अति से है । कर्म ऐसे करें जिससे निष्कामता आए । परिश्रम में बहुत अति करने से कामुकता पैदा होती है , और कामुकता से मन अशांत होता है जिससे मस्तिष्क और देह दोनों में ही रोग पैदा होते हैं । मेरे अनुभव में वह परिश्रम निरोगी बनाता है जिसमें अकर्ता का भाव पैदा होता है । इसे ही गीता में निष्काम कर्म कहा गया । स्वामी स्वात्माराम ने इसलिए इसे बाधक तत्व माना । 


5- नियम पालन में आग्रह-

नियम पालन में भी अति नहीं होनी चाहिए । नियम मन के द्वारा ही बनाए जाते हैं , इसमें अति करने से मस्तिष्क और देह आदत का शिकार हो जाता है । और किसी भी प्रकार की आदत चाहे वह अच्छी ही क्यों न हो, शरीर और मन को भविष्य में दुःख देता है । 


6- मन की चंचलता 

उपर्युक्त सभी बाधक तत्वों के पीछे का मूल कारण मन की चंचलता ही है । मन के तीव्र गति से चलायमान होने से ज्ञान इंद्रियों में दोष उत्पन्न होता है और ज्ञानेंद्रियों के दूषित होने पर कर्मेंद्रिया स्वाभाविक रूप से अस्वाभाविक हरकतें करने लगती हैं । इसीलिए यौगिक साधकों को मन को स्थिर और शांत करने का निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए । 

Recent Blog

Copyright - by Yogi Anoop Academy