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वर्तमान में जीने से मानसिक रोग

3 years ago By Yogi Anoop

वर्तमान में जीने से क्या मानसिक रोग ख़त्म हो सकते हैं ?


मन का वर्तमान में रहने का अर्थ है कि व्यवहार में जो भी परिस्थिति है उसके साथ प्रबंधन करना । मन इंद्रियाँ और देह उस व्यावहारिक परिस्थिति का सामना करता है । उस समय उसे परिस्थितियों से हँडेलिंग सीखना मजबूरी होता है । 

कहने का अर्थ है कि किसी भी समस्या का सामना करते समय व्यक्ति को वर्तमान में रहना उसकी बाध्यता हो जाती है । किंतु जब व्यक्ति किसी सामान्य अवस्था में रहता है तब उसे वर्तमान में रहने कि बाध्यता नहीं होती है । वहाँ पर उसका मन वर्तमान परिस्थिति से हट कर स्वनिर्मित कल्पनाओं का निर्माण करता है । 

उस समय वह एक ऐसा चलायमान दृश्य का निर्माण करता है जिससे स्वयं को खुद कर सके , इसमें वह स्वयं के मनमुताबिक निर्णय निकालता है । इन सभी प्रक्रियाओं में इंद्रिय और शरीर को मजबूरी वश सीखना पड़ता है । 

मन के द्वारा इन प्रक्रियाओं में वह वर्तमान में नहीं रह पाता है, उसकी इंद्रियाँ और शरीर एक साथ कार्य नहीं करते हैं, उसकी ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ का निर्देशन मनोकल्पित- कल्पनाएँ करती हैं । इस अवस्था में सिर्फ़ मन और इंद्रिय की पैम्परिंग होती हैं शरीर शिथिल रहता है । 

इस पैम्परिंग में आप को त्वरित सुख मिल जाता है, यहाँ तक कि मन इतनी तेज सुख प्राप्त करना चाहता है कि शरीर तो छोड़ो इंद्रियों का भी सहयोग नहीं  लेता ।

जैसे स्वप्न में -मन बिना इंद्रियों के , बिना शरीर के सहयोग के स्वनिर्मित कथानक व स्क्रिप्ट से सुख प्राप्त करता है । अर्थात् dopamine पैदा कर लेता है । आपने मन को इतना पैम्पर कर दिया कि बिना किसी अन्य हिस्से के सहयोग के भोजन देकर सुख दे दिया । 

सत्य यह है कि मन को प्राप्त होने वाला यह त्वरित सुख अन्य सहयोगियों  (इंद्रियों और शरीर) को भविष्य में बहुत दुःख व रोग देता है ।  इसका प्रमुख कारण है, शरीर और इंद्रियों की  उपेक्षा करना ।


एक उदाहरण से इसे समझा सकता है । 

एक व्यक्ति को किनारे खड़े होकर समुद्र को देखना अच्छा लगता है - वह कहता है इस प्रकृति कितनी अच्छी है । किंतु ध्यान दें उसके मन के अंदर उस जैसी प्रकृति देखने व को अनुभव करने को नहीं मिली , तभी उसका मन बाहर वाले प्रकृति को देखने के प्रति  आकर्षित हो रहा है । आकर्षण का मूल कारण है अंदर की कमी , अर्थात् उस कमी को मन बाहर बाहर से पूरी करना चाहता है । इस पूरी करने की प्रक्रिया में शरीर की उपेक्षा होती है । शरीर और इंद्रियों को उतनी मात्रा में होर्मोनल सिक्रीशन नहीं मिल पाता जितनी मात्रा में उसे चाहिए । 


एक अन्य उदाहरण से इसे और गहराई से समझा जा सकता है - 

कोई भी व्यक्ति डर से भाग रहा है तो उस समय शरीर और मस्तिष्क के अंदर जिस मात्रा में हार्मोनल सिक्रीशन होगा और जब वह स्वप्न में डर से भाग रहा होता है तब जिस मात्रा में होर्मोनल सिक्रीशन होगा, उसमें बहुत बड़ा फ़र्क़ होता है । जागृत अवस्था में पैदा हुए होर्मोनेस को शरीर आसानी से अब्ज़ॉर्ब कर लेता है , किंतु स्वप्न में पैदा हुए होर्मोनेस को अब्ज़ॉर्ब नहीं कर पाएगा क्योंकि स्वप्न में शरीर और इंद्रियाँ निष्क्रिय थी ।

यह सत्य है कि स्वप्न में इतनी तीव्रता थी कि शरीर और इंद्रियों में कम्पन हुआ किंतु वह कम्पन नुक़सान देय होता है और  उससे देह और मस्तिष्क का स्वतः उपचार (सेल्फ़ हीलिंग) नहीं हो पाता है  । 

वहाँ पर मन तीव्र सक्रिय था और मन की सक्रियता ने शरीर और इंद्रियों में तनाव पैदा किया ,किंतु जागृत अवस्था में मन को  इंद्रियों के साथ साथ शरीर का भी पूरा सहयोग मिलता है ।

जागृत अवस्था में वर्तमान था किंतु स्वप्न में केवल मन ही अपने मनोनिर्मित चलायमान दृश्य के समय ही वर्तमान में था , उस वर्तमान में उसका कोई भी नियंत्रण नहीं होता है । साथ साथ वह समय काल बहुत ही तेज और अल्पकालिक के लिए ही होता है । 


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