जो जैसा है उसे उस रूप में ना समझकर किसी दूसरे वस्तु को उसमें आरोपित करने का अर्थ है कि वर्तमान में न रहना । जैसे भोजन में परमात्मा का अनुभव करना । टहलते समय अथवा दिन भर की दैनिक क्रियाओं में स्वयं की साँसों को ही देखते रहना इत्यादि । कुछ बुद्धिजीवियों का यह सोचना अवश्य रहा होगा कि यदि भोजन करते समय भोजन में परमात्मा का अनुभव किया जाएगा तो उसके प्रति आदर बढ़ेगा । किंतु मैं कहता हूँ कि भोजन के प्रति आदर से कहीं अधिक स्वाद को अनुभव करना अधिक महत्वपूर्ण है ।
मेरे अनुभव में भोजन को भोजन की तरह ही करना वर्तमान में जीना है । भोजन को भोजन की ही तरह करने पर उसका स्वाद प्राप्त होगा । यदि भोजन में ज़हर की कल्पना कर लोगे या भोजन में किसी मल मूत्र की कल्पना करोगे तो मन भोजन के मूल स्वाद के अनुभव को त्यागकर उस मल मूत्र के गंदे स्वाद की याद करने लगेगा । यदि भोजन करते समय मन उसमें ज़हर का अनुभव करने लगे तो भयाक्रांत होकर भोजन के मूल स्वाद से विरक्त हो जायेगा । यहाँ तक कि भोजन से अरुचि हो जाएगी । यद्यपि वह जानता है कि यह उसके मन की कल्पना मात्र है किंतु उस कल्पना से मन में भय का आना निश्चित है ।
बिलकुल उसी प्रकार यदि भोजन करते समय मन भोजन में मल या किसी गंदगी का अनुभव कर बैठा तो मन और इंद्रियों में भोजन के प्रति अरुचि हो जाएगी । अर्थात् उसका मन वर्तमान से बाहर घूम रहा है । भोजन करते समय मन का वर्तमान उसका स्वाद है न कि उस भोजन में किसी अन्य पदार्थ का अनुभव करना ।
यदि उस भोजन में वह परमात्मा का भी अनुभव कर रहा है तो भी सर्वथा अनुचित है । क्योंकि भोजन करते समय भोजन की प्राथमिकता उसका स्वाद है । जीभ पर भोजन को रखने पर उसमें स्वाद का अनुभव होना आवश्यक है न कि उसमें किसी अन्य कल्पित पदार्थ की ।
मेरे पास ऐसे बहुत लोग आते हैं जिनकी परेशानी ही यही होती है कि भोजन करते समय किसी गंदे पदार्थ का अनुभव करने लगते हैं । यद्यपि उन्हें मानसिक रोगी कहकर उनको डॉक्टरों द्वारा दवाइयाँ दी जाती हैं ।
मैं कहता हूँ कि आख़िर भोजन को भोजन कहने में क्या दिक़्क़त है ।उसे कोई अन्य पदार्थ क्यों समझने का प्रयास करते हो । भोजन को भोजन के रूप में करने पर कम से कम उसका पूर्ण स्वाद तो मिल पाएगा और साथ साथ अनावश्यक कल्पनाओं को करने से बचाव भी हो जायेगा । मन किसी भी कार्य की गहराई में जब जाता है तो कल्पनाओं को स्वतः ही त्याग देता है । किंतु जब व्यक्ति स्वयं के मन को किसी कार्य को करते समय कल्पना करने की ट्रेनिंग देता है तो वह ग़लत है । यही कल्पनाएँ भविष्य में स्वयं के लिये जंजाल खड़ा कर देती हैं । और कुछ वर्षों के बाद यही शिकायत होती है कि मन वर्तमान में लगता नहीं है, इधर उधर भागता है । ध्यान दें -जब भोजन को भोजन के रूप में ही किया जाएगा तो मन का पूर्ण वर्तमान में रहना मजबूरी हो जाती है और साथ साथ उसका धैर्य भी बहुत अधिक बढ़ जाता है । जैसे मन का पूर्ण स्वाद लेने पर मन में भोजन को ख़त्म करने की जल्दीबाज़ी भी नहीं होती है ।
एक और उदाहरण से इसे और गहराई से समझा जा सकता है - सुबह सुबह ऑफिस जानेवाला व्यक्ति घर में भोजन कर रहा होता है तब उसके मन में भोजन का स्वाद नहीं बल्कि उसके ऑफिस में जल्दी पहुँचने का विचार हावी होता है । इसीलिए वह जल्दीबाज़ी में ख़ाना खा बैठता है और उस भोजन का मूल स्वाद नहीं ले पाता है ।
सत्य यह है कि भोजन करते समय मन में भोजन के स्वाद पर नहीं बल्कि ऑफिस में जल्दी जाना हावी है । इसीलिए उसका धैर्य समाप्त हो जाता है ।
ध्यान दें किसी भी कार्य को करते समय उसमें मन और इंद्रियों को पूर्ण अनुभव होना चाहिए । वही उसकी वर्तमान अवस्था है । मूल सत्य तो यह है कि यह मन वर्तमान में जीना चाहता है , उसका अनुभव करना चाहता है किंतु बचपन से ही उसके मन की ऐसी ग़लत ट्रेनिंग की जाती है जिससे उसे वास्तविकता का आभाष ही नहीं हो पाता है । उसे सामान्य सी बात भी समझ नहीं आती है ।
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