सामाजिक दृष्टि से देखा जाये तो घर अथवा आश्रम का बूढ़ा व अनुभवी सदस्य बैठा रहता है । मानो वह अनुभवों के भंडार पर बैठा हुआ हो । उसका देह , इंद्रिय व मन हलचल रहित अवस्था में होता है । भारतीय सभ्यता में उसे ही अपना गुरु माना जाता है जिसमें स्थिरता होती है , जिसके पास अनुभव व ज्ञान का भंडार है ।
इसीलिए घर के सभी सदस्य उसे अपना रक्षक मानते हैं । उसी से सलाह इत्यादि लिया जाता है । क्योंकि उसने सुख और दुख को बहुत क़रीब से अनुभव किया है और फिर स्थिरता को प्राप्त हुआ है । मानो वह अपने जीवन के अनुभवों पर बैठा हुआ हो । यही अनुभव ही व्यक्ति को उसके जीवन व उसके समाज की रक्षा करते हैं ।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखो तो एक सिद्ध साधक या ज्ञानी योगी विचारों व स्मृतियों के अथाह समुद्र पर बैठा हुआ होता है । विचार उसे छू नहीं सकते किंतु वह विचारों को छूने का अधिकार रखता है । वह अपनी स्मृतियों में डूबता और उतराता नहीं है । वह स्मृतियों में छिपे हुए भावों को निष्क्रिय करने की शक्ति रखता है । सामान्यतः लोग स्मृतियों में जाकर भावुक हो जाते हैं । इससे सुख और दुख होने लगते हैं । इससे इंद्रियों और मन में चंचलता प्रारंभ हो जाती है । किंतु स्मृतियों के जाकर उसके भावों को नष्ट कर देना एक ज्ञानी अनुभवी ही कर सकता है ।
वह अपने अनुभवों से अपने ही अनंत विचारों के ऊपर बैठ जाता है । योगियों की भाषा में इसे ही तटस्थ कहा जाता है । अर्थात् नदी के किनारे तट पर दृष्टा भाव से स्थित बैठे हैं ।
यहाँ विष्णु जी स्मृति जैसे अथाह समुद्र में अप्रभावित अवस्था में बैठे हैं । समाज में क्या हो रहा , इससे अप्रभावित हैं । समाज की घटनाएँ उनको छू नहीं पाती हैं किंतु वह समाज की हलचल को ठीक करने की सामर्थ्य रखती हैं । जैसे ज्ञानी को विचार नहीं हिला सकते किंतु वह विचारों को तो हिलाता ही है । विचारों का उपयोग करता ही है । वह व्यक्ति जो केंद्र में बैठा है वह बहुत हिलता डुलता नहीं है । केंद्र हमेशा स्थिर होता है । जो परिधि में है वही अस्थिर है ।
व्यक्ति को जब यह ज्ञान हो जाता है कि विचारों को उसने पैदा किया तो इसका अर्थ है कि वह केंद्र में बैठा है । उसके द्वारा ही विचार पैदा किए गये हैं तो वह विचारों को नियंत्रित कर सकता है । क्योंकि वह नियंत्रण कर्ता है । किंतु जब व्यक्ति को यह भ्रम रहता है कि विचार उसे चलाते हैं तब वह परिधि में होता है । तब वह विचारों से नियंत्रित होने लगता है ।
यहाँ पर समुद्र का आध्यात्मिक अर्थ है स्मृति और बैठने का अर्थ है कि बिना किसी मनो द्वैत के स्थिर पूर्वक निश्चिंत बैठना ।
साथ साथ यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि विष्णु जी का सर्प पर बैठने का का क्या अर्थ है ?
जल में बिना किसी आधार के तो बैठा नहीं जा सकता है । बैठने के लिए कोई ना कोई आधार चाहिये । मनुष्य की स्मृति जो समुद्र से कहीं अधिक गहरी और अमाप्य है, जो सुख और दुख से भरी है । उसके ऊपर बैठने के लिये कोई ना कोई आधार तो चाहिए । मेरे अपने अनुभवों में स्त्रियों व विचारों के ऊपर तटस्थ बढ़ने के लिये सिर्फ़ ज्ञान ही आधार है । जिसे योग में कुंडलिनी सर्प कहते हैं । स्वयं के अंदर यह एक प्रकार का छिपा हुआ ज्ञान है जो स्वयं की रक्षा करता है । यही ज्ञान (सर्प) बाहर निकल कर इन समस्त विचारों के ऊपर बैठा देता है ।
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