विश्वास और ज्ञान का मस्तिष्क पर प्रभाव
शिशु के मस्तिष्क का सर्वाधिक विकास विश्वास के माध्यम से ही होता है । उसके व्यावहारिक जगत में विश्वास को अधिक डाला जाता है ताकि उसके इंद्रियों और मस्तिष्क का तेज़ी से विकास हो सके जिससे उसमें स्वीकारोक्ति अधिक बढ़े , स्वीकार करने की शक्ति के बढ़ने पर मन के अंदर अनावश्यक शंकाएँ पैदा नहीं होती हैं जिससे उसके मस्तिष्क का तीव्र विकास होने लगता है ।
उदाहरणस्वरूप -
जैसे बचपन में माता-पिता के कहने मात्र से कि बच्चा यह स्वीकार कर लेता है वह उन्ही का बच्चा है । बच्चे को उसके माता-पिता पर शंकाएँ नहीं होती हैं । माता पिता के द्वारा मारने पीटने का बावजूद भी बच्चे के के अंदर शंकाएँ उत्पन्न नहीं होती हैं । इसका प्रमुख कारण ‘विश्वास’ है । इसी प्रकार उसके अंतर्मन में ईश्वर से सम्बंधित विस्वाश की बातें भी डाली जाती हैं । बच्चे के मन में भिन्न भिन्न प्रकार के विस्वाश डाले जाते हैं जो संस्कार के रूप में उभरते हैं वही बड़े होकर उसका व्यक्तित्व बनाते हैं । सामान्यतया इस विश्वास की प्रगाढ़ता इतनी तीव्र और धारदार होती है कि उसके प्रौढ़ मस्तिष्क को भी नियंत्रित करने लगती है ।
किंतु उम्र के बढ़ने पर मस्तिष्क को भी धीरे धीरे परिपक्व होना चाहिए । सामान्यतया शारीरिक उम्र के बढ़ने पर मस्तिष्क में प्रौढ़ता देखने के बजाय चंचलता देखने को मिलती है । किंतु मस्तिष्क को परिपक्व होना शुरू हो जाना चाहिए , उसके मन को विश्वास से तर्क और ज्ञान की तरफ़ शिफ़्ट होना शुरू कर देना चाहिए । यद्यपि माता पिता इन वैज्ञानिक तथ्यों से अपरिचित ही होते हैं किंतु कोई भी मस्तिष्क विश्वास से ज्ञान की तरफ़ नहीं बढ़ता तो इसका अर्थ है कि उसका विकास उस विश्वास ने अवरुद्ध कर दिया । वह विश्वास उस बच्चे के मस्तिष्क के विकास के लिए बहुत अच्छा था किंतु प्रौढ़ मस्तिष्क (adult Brain) के लिए उपयुक्त नहीं । अब वही ‘विश्वास’ उसके लिए विष बन चुका है , एक उम्र तक विश्वास पर निर्भरता की अपनी सीमा में निश्चित हो जानी चाहिए अन्यथा वही विश्वास मस्तिष्क के पागलपन का सबसे बड़ा कारण बन जाती है ।
एक अन्य उदाहरण से इसे समझा जा सकता है -
गुरु के पास जब कोई शिशु ज्ञान प्राप्त करने के लिए आता है, तब सर्वप्रथम उसके दिए गए ज्ञान पर उस शिष्य को विस्वाश करना पड़ता है । किंतु कुछ दिनों महीनों या वर्षों के अभ्यास के बाद स्वयं गुरु अपने शिष्य से उसको दिए गए सिद्धांतों कर तार्किक चर्चा करने को कहता है । यदि उस तार्किक ज्ञानात्मक चर्चा में वह हर प्रकार से कामयाब होता है तब गुरु यह समझ लेता है कि इसकी बुद्धि, विश्वास से ऊपर अर्थात् तार्किक ज्ञान पर स्थित हो गयी । किंतु ध्यान दें परमार्थ व ईश्वर को प्राप्त करने के लिए जब विस्वाश का इस्तेमाल आवश्यकता से अधिक करने लगते हैं तब समस्या बड़ी विकट हो जाती है । प्रारम्भ में तो सब ठीक ठाक रहता है किंतु जब पूरी निर्भरता इस पर आ जाती है तब आप का मन मस्तिष्क दास की तरह अनुभव करने लगता है । अब ऊपर आसमान में भगवान व जीसस बैठे होते हैं और नीचे हम विश्वास किए बैठे होते हैं । हमें उसकी ओर छोर का पता नहीं , बस विस्वाश किए बैठे हैं , और वो भी उम्र की उम्र निकल जाती है , जीवन के अंतिम दिनों में भी उसकी झलक तक नहीं मिल पाती ।
क्यों ?
क्योंकि उस परमार्थ के मार्ग में विश्वास के बाद आनुभविक ज्ञान की आवश्यकता होती है ,
तभी सत्य प्रकट होता है और उसी के बाद समस्त संशय समाप्त हो जाता है । ध्यान दें संशय के समाप्त होने पर ही मन सदा के लिए शांत होता है ।
अंत में कहने का मर्म सिर्फ़ इतना है कि शिशु मस्तिष्क को विश्वास के माध्यम से विकसित किया जाता है और प्रौढ़ मस्तिष्क होने पर अनुभव, तर्क और ज्ञान का उपयोग किया जाता है जिससे मन मस्तिष्क को सदा के लिए संशय रहित किया जा सके । और साथ साथ मानसिक संशय के द्वारा शरीर पर जो जो रोग होते हैं उससे भी बचा जा सके ।
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