Loading...
...

वात प्रकोप से क्यों पीड़ित होते हैं?

3 months ago By Yogi Anoop

धार्मिक लोग वात प्रकोप से क्यों पीड़ित होते हैं?


शिष्य: गुरुजी, मैं एक धार्मिक और सात्विक जीवन जीता हूँ। साधारण खाना खाता हूँ - दाल, रोटी, सब्जी और बिना लहसुन-प्याज के। मेरी इच्छाएँ भी सीमित हैं, फिर भी मैं वात प्रकोप से पीड़ित क्यों रहता हूँ?


योगी अनूप : ये एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। दरअसल, सात्विकता का जीवन जीने के बावजूद भी आपके भीतर जो तनाव और थकान उत्पन्न होती है, उसका कारण आपके विचारों का लगातार दोहराव हो सकता है। आप अपने विश्वासों और मान्यताओं को हर जगह, हर वस्तु में देखने का प्रयास करते हैं। ये प्रयास आपके मस्तिष्क पर अतिरिक्त बोझ डाल सकता है जिसके कारण देह में वायु का असंतुलन व बहाव होना स्वाभाविक सा हो जाता है ।


छात्र: लेकिन गुरुजी, प्रत्येक वस्तु में भगवान को देखना तो हमारी धार्मिक शिक्षा का हिस्सा है। इसमें क्या असत्य है?


योगी अनूप : असत्य कुछ भी नहीं है । यह एक मान्यता है जिसमें कहीं न कहीं , कुछ न कुछ मात्र में सभी जीते हुए देखे जाते हैं ।  किंतु  जब आप प्रत्येक स्थान व वस्तु में भगवान व परमात्मा को देखने का प्रयत्न करते हैं, तो इस प्रक्रिया में आपकी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा का अत्यधिक उपयोग होता है। वर्तमान में जो है उसमें किसी और की कल्पना करना मन पर बोझ डालना है ।  ये कार्य आपके दिमाग, इन्द्रियों और सूक्ष्म अंगों पर अतिरिक्त दबाव डालता है। यह एक अस्वाभाविक प्रक्रिया है, क्योंकि हर वस्तु में भगवान का रूप देखने की कोशिश एक तरह की मन और इंद्रियों पर दबाव है। वस्तु को वस्तु के रूप में न देखकर उसमें किसी और अस्तित्व का मन में चित्रण करते है तो इस अवस्था में पूर्ण रूप से वर्तमान में रह पाना संभव नहीं होता है । मैं आपसे बात करते हुए आपमें परमात्मा देखने का प्रयत्न करूँ तो इसका अभिप्राय यही है कि मैं आपको आपके रूप में नहीं देख पाऊँगा । आपके साथ मेरा उस समय का व्यवहार एक क्षलावा मात्र ही होगा । 


छात्र: तो क्या इसका अर्थ है कि हम वस्तु और भगवान में फर्क करें ! उन्हें एक न समझें !


योगी अनूप : यह संसार भिन्नता से भरा है, भिन्नता में अभिन्नता की अनुभूति करना ही उद्देश्य है । किंतु प्रत्येक वस्तु में परमात्मा को देखने से भिन्नता समाप्त नहीं होती । भिन्नता ही तो व्यवहार है । यदि व्यवहार में जीवन जीना है तो उसकी भिन्नता का अनुभव करना ही होगा , ऐसा मेरा अनुभव है । अभिन्नता का अनुभव आध्यात्मिक है । जैसे व्यक्ति दर्पण में स्वयं को देखता है , दर्पण वस्तु है किंतु उस वस्तु को नहीं देखता । वह स्वयं को देखता है । वैसे ही जब भोजन करने वाला व्यक्ति भोजन पर नहीं बल्कि भोजन के माध्यम से स्वयं में संतुष्टि ले रहा होता है । वह स्वयं के लिए भोजन करता है न कि भोजन के लिए भोजन । वह स्वयं को महत्व देता है । उसका स्वयं केंद्र में स्थित है , वह स्वयं को परिधि में नहीं रखता है, क्योंकि वह परिधि में है ही नहीं । मैं इसे ही अद्वैत कहता हूँ ।  यही आत्म ज्ञान देता है ।   


   

छात्र: तो फिर इस दृष्टिकोण का क्या हल है? हर वस्तु में भगवान को देखने का प्रयास कैसे थकान का कारण बनता है?


योगी अनूप : थकान का मूल कारण है मन, इंद्रियाँ व देह का आवश्यकता से अधिक चलायमान होना ही होता है ।  यदि  वस्तु में भगवान को देखने  की कल्पना प्रतिपल किया जा रहा है , तो यहाँ पर मन और इन्द्रियों का आवश्यकता से अधिक उपयोग व्यावहारिक जीवन में किया जा रहा है । यहाँ तक कि उस समय जब व्यवहार में जीने का समय था । यह प्रयत्न की मानसिक तनाव पैदा करता है। यह तनाव आपके मन, मस्तिष्क और इन्द्रियों में चंचलता पैदा करता है और अंततः वात प्रकोप को बढ़ाता है। इस प्रकार का मानसिक असंतोष ही वात दोष का कारण बनता है।


छात्र: तो क्या इसका मतलब है कि हमें विश्वास और मान्यताओं को त्याग देना चाहिए?


योगी अनूप: नहीं, बिना विश्वास के जीवन जीना संभव नहीं । जैसे खाने में नमक भी डालते हैं ये विश्वास करके कि ये नमक ही है । वह विष भी हो सकता है । क्योंकि पूर्ण रूप से आपको उस नमक के गुणवत्ता की व्यवहारिक जानकारी नहीं है । यहाँ तक माता पिता के बच्चे होने का भी विश्वास ही करते हैं किंतु व्यावहारिक जगत में जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही देखने का प्रयास करें। जैसे जानवर को जानवर की तरह, स्त्री को स्त्री की तरह, पुरुष को पुरुष की तरह देखें। इसमें किसी अन्य शक्ति का मानसिक चित्रण न करें। इस प्रकार की व्यवहारिक दृष्टि से मन, मस्तिष्क और देह सभी आराम की अवस्था में पहुँच जाते हैं।


छात्र: तो इसका अर्थ है कि यदि हम व्यावहारिक रूप में जीना सीखें, तो क्या वात प्रकोप कम हो सकता है?


योगी अनूप : बिल्कुल। जब आप जिस वस्तु से संपर्क में हैं, उसका सीधा अनुभव करते हैं - जैसे भोजन का अनुभव भोजन के रूप में, तो आपके मन का अनावश्यक चित्रण स्वतः ही समाप्त हो जाता है। इससे मानसिक थकान भी घटती है, और विचारों की प्रक्रिया भी शांत हो जाती है। 


छात्र: यह दृष्टिकोण अपनाना तो कठिन है, परन्तु क्या इससे अद्वैत का अनुभव भी हो सकता है?


योगी अनूप: हां, बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखें, तो इस व्यवहारिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया से गुजरने पर अद्वैत का अनुभव भी प्राप्त हो सकता है। इस स्थिति में विश्वास की आवश्यकता घट जाती है, और एक प्राकृतिक संतुलन स्थापित होता है।


छात्र: गुरुजी, आपकी बातों से समझ आ रहा है कि हमें अपने मन को व्यर्थ के चित्रण से मुक्त रखना चाहिए। क्या ठीक से समझ पाया ।


योगी अनूप: बिल्कुल, यही संतुलन और स्पष्ट दृष्टि आपको वास्तविक शांति और संतोष प्रदान करेगी। और यही वास्तविक अद्वैत का अनुभव है।


Recent Blog

Copyright - by Yogi Anoop Academy