प्रश्न: गुरुदेव, आपने कहा कि दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित वायु यदि असंतुलित हो जाए, तो मस्तिष्क में रोग उत्पन्न कर सकती है। क्या यह बात केवल प्रतीकात्मक है या इसका शास्त्रों में भी उल्लेख है?
योगी अनूप: यह प्रतीक मात्र नहीं है — यह अनुभवजन्य सत्य है। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है:
“उत्तरायणं प्राणो गच्छति।” अर्थात् प्राण उत्तर दिशा की ओर गमन करता है — यहाँ उत्तर केवल भौगोलिक दिशा नहीं है, बल्कि ऊर्ध्व गमन की चेतना है। चेतना के उत्तरायण का मूल अर्थ उर्ध्वागमन से है । इसका तात्पर्य ज्ञान के उन्मूलन से है । अर्थात् दक्षिण से उत्तर की ओर चेतना के विस्तारण का अर्थ है विवेक ज्ञान का जागृत हो जाना । इसी के विपरीत यदि चेतना का विस्तार उत्तर से दक्षिण (नाभि से नीचे का स्थान) की ओर होता है तो चेतना सिर्फ़ भोजन और सेक्स , काम वासना की तरफ़ ही प्रेरित रहती है ।
शरीर के संदर्भ में देखें तो नाभि से ऊपर की दिशा जिसे उत्तर दिशा मानते हैं — हृदय, कंठ, भ्रूमध्य और सहस्रार तक का जो मार्ग है — वह योग में ऊर्ध्व मार्ग कहलाता है। इसी मार्ग से प्राण ऊपर उठता है — और यही उदान वायु का कार्यक्षेत्र है।
अब यदि यह दक्षिण से उत्तर की ओर बहने वाली उदान वायु असंतुलित हो जाए, तो यही मार्ग बाधित हो जाता है — और चेतना व सोच व विचारों का प्रवाह नीचे अर्थात् नाभि के नीचे की ओर, तमस की ओर, गिरने लगता है।
उदान वायु को श्रुति ग्रंथों में मृत्यु के समय प्राण को बाहर ले जाने वाली वायु कहा गया है।
ब्रह्मसूत्र कहता है —“उदानः स्मृति लोपे” — अर्थात् जब स्मृति लुप्त होने लगे, तो उदान वायु ही चेतना को ऊपर या नीचे, जिस दिशा में उसका अभ्यास हो, उस ओर ले जाती है।
यदि यह वायु सात्त्विक हो — तो प्राण ब्रह्मरंध्र की ओर जाता है, जहाँ से मोक्ष का द्वार खुलता है।
यदि यह राजसिक या तामसिक हो जाए — तो प्राण शरीर के निचले मार्गों से निकलता है, और पुनर्जन्म के चक्र में पड़ जाता है।
इसलिए इस पर विवेकपूर्ण नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।
प्रश्न: गुरुदेव, क्या उदान वायु केवल मृत्यु के समय ही कार्य करती है, या सामान्य जीवन में भी इसका कोई प्रभाव है?
योगी अनूप: उदान वायु जीवन के हर क्षण में कार्यरत है। ज्ञानेंद्रियों के द्वारा प्रत्येक कार्य में इसी वायु की उपयोगिता है । उत्तर दिशा की और आने वाली वायु अथवा उत्तर दिशा की तरफ़ कोई भी घटने वाली घटनाएँ विवेक से ही नियंत्रित होनी चाहिए अन्यथा वह मृत्यु का कारण बनेगी ही । वह इसीलिए क्योंकि सभी ज्ञानेन्द्रियों के गुणों (देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श और स्वाद) का मूल संबंध उसके विवेक व ज्ञान से है । यदि उसमें निर्णय की क्षमता ही न रहे तो मृत्यु व रोग तो स्वाभाविक ही है ।
इसीलिए मैं इस उदान वायु को नाभि के ऊपर होने वाले सभी हलचल में उत्तरदायी मानता हूँ । जैसे
जब आप बोलते हैं — यह वाणी के रूप में कार्य करती है।
जब आप कुछ निगलते हैं — यह गले की गति में होती है।
जब आप हँसते हैं, गाते हैं, रोते हैं, उच्चारण करते हैं — सब में उदान वायु सक्रिय रहती है।
यह ऊर्ध्वगामी शक्ति है — इसका सीधा संबंध मस्तिष्क और आत्मबोध से है।
मनोविज्ञान में जिसे हम Expression कहते हैं — उसे योगिक भाषा में उदान कहते हैं।
अब यदि कोई व्यक्ति अवसादग्रस्त हो — न बोले, न हँसे, न रोए — तब समझिए कि उदान वायु स्थिर नहीं, जड़ हो चुकी है।
यदि कोई व्यक्ति अत्यधिक बोलता है, चिल्लाता है, या हँसी का आडंबर करता है — तब भी उदान वायु असंतुलन में है।
अतः शांति और स्फूर्ति — दोनों का संतुलन ही इसका लक्षण है।
अर्थात् यह सिद्ध है कि उदान वायु का मूल संबंध मन, मस्तिष्क व बुद्धि के क्षेत्र से अत्यंत जुड़ा हुआ है ।
प्रश्न: आपने कहा कि बाकी वायुओं का लय प्राण वायु में हो सकता है। कृपया थोड़ा और स्पष्ट करें।
योगी अनूप: प्राण वायु ही मूल है — जैसे गंगा पर्वतों से निकलती है और शेष नदियाँ उसमें मिलती जाती हैं, वैसे ही अपान, समान, व्यान, और उदान — ये सब अंततः प्राण वायु में ही मिलते हैं।
मैं इसे यौगिक भाषा में कहता हूँ — “प्राण लय”। यह मात्र सांसों के नियंत्रण से नहीं होता — यह चिंतन, व्यवहार, और संवेदना के शुद्धिकरण से होता है। और अंततः विचारों से परे अर्थात् बुद्धि के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने से भी है ।
प्रश्न: तो क्या यह वायु असंतुलित हो तो ध्यान नहीं लग सकता , व विचार नहीं रुक सकते !
योगी अनूप: जैसे तेज तूफ़ान में स्थिर रह पाना संभव नहीं हो पाता है , यहाँ तक कि शक्तिशाली वृक्ष व घर इत्यादि भी गिर जाते हैं वैसे ही देह के अंदर भौतिक रूप से वायु की वृद्धि से विचारों का ठहर पाना संभव नहीं हो पाता है । यहाँ तक इस प्रकार के स्वभाव वाले लोगों के व्यापारिक जीवन में भी स्थिरता देखने को नहीं मिलती है । बारम्बार उतार चढ़ाव बहुत देखने को मिलता है । यद्यपि उतार-चढ़ाव व्यावहारिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है जो कि स्वाभाविक होता है किंतु इस प्रकार के वात स्वभाव में अस्थिर चित्त हमेशा बना रहता है ।
वह इसीलिए कि अन्तरतम में बेचैनी है और अन्तरतम में बेचैनी व असंतोष से वाह्य वातावरण से आने वाली समस्याओं का सामना अच्छी तरह से संभव नहीं हो पाता है ।
ध्यान की पहली शर्त है — वायु का गमन स्थिर हो। शारीर में वायु का दबाव कम से कम और नियंत्रित होना चाहिए । और विशेषकरके दक्षिण से उत्तर की ओर वायु का प्रवाह नियंत्रित होना चाहिए । जैसे एक उदाहरण से इसे समझना आसान होगा । यदि किसी भी व्यक्ति की डकार अंदर की ओर रुक गई है तो ध्यान व किसी भी स्थान पर मन को लगाना लगभग असंभव हो जाता है । वह इसीलिए क्योंकि वायु अति तीव्र हो चुकी है — तब मस्तिष्क अत्यधिक सक्रिय हो जाता है। और साथ साथ यह प्रवाह अति मंद हो जाए — तब भी व्यक्ति में जड़ता आ जाती है।
इसलिए उदान वायु को न अधिक उत्तेजित करना है, न अधिक रोकना — बल्कि उसे स्वभाविक गति में संतुलित करना है।
अंततः उत्तर की दिशा में सभी का ही निवास होना चाहिए -वह इसीलिए क्योंकि यह दिशा अन्य सभी दिशाओं को समझता भी है और नियंत्रित भी करता है । इसीलिए भारतीयता में उत्तर दिशा में शिव का वास माना गया , अर्थ ज्ञान विवेक एव मृत्यु का भगवान का वास है । और साथ साथ इसी उत्तर दिशा में धन व लक्ष्मी के देवता कुबेर का वास है । इसी क्षेत्र में सरस्वती का भी निवास है ।
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