विचारों का दमन और उसकी गुप्त मनोविकृति
मन एक जीवंत धारा है — इसमें निरंतर विचार आते-जाते रहने चाहिए। और अवलोकन की विधि से इस मन को शांत और स्थिर भी करना चाहिए । किंतु हम किसी विचार को यह समझकर कि घृणित है, अस्वीकार कर देते हैं, उसे “गलत” कहकर दबा देते हैं, या उस पर एक कृत्रिम “अच्छे विचार” की परत चढ़ा देते हैं, तब वही दमन कालांतर में मनोविकारों की जड़ बन जाता है। यह दमन स्वयं से छिपी हुई एक गुप्त हिंसा होती है — जो मन में एक अदृश्य रूप से तनाव पैदा करती है।
हम में से बहुत से लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने ही मौलिक विचारों का निरंतर विरोध करते रहते हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी के भीतर किसी पूजनीय व्यक्ति के प्रति अपवित्र विचार उठते हैं, तो वह व्यक्ति स्वयं को दोषी मानता है और इन विचारों को कुचलने का प्रयास करता है। किंतु विचार को कुचलना, उसे नष्ट नहीं करता — वह भीतर गहराई में जाकर जमा हो जाता है। यही दबी हुई सामग्री कालांतर में obsession, anxiety, या भ्रम, वहम जैसी मानसिक अवस्थाओं का रूप ले लेती है।
इसी तरह, यदि मन में बार-बार यौन विचार उठते हैं, विशेषकर वे जो सामाजिक या नैतिक रूप से स्वीकार्य नहीं माने जाते, तो व्यक्ति स्वयं से संघर्ष में उतर आता है। वह या तो इन्हें पूरी तरह दबाता है, या उनके स्थान पर किसी ‘शुद्ध विचार’ को बिठाने का प्रयत्न करता है। परंतु यह प्रक्रिया एक स्वस्थ आत्मअन्वेषण नहीं, बल्कि मानसिक अशांति का बीज बन जाती है। यह समझना कि मन आख़िर यह सब बना क्यों रहा है, आवश्यक है ।
ध्यान की प्रक्रिया इस दमन से भिन्न है। ध्यान हमें विचारों से भागने या उन्हें बदलने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें जैसे हैं वैसे देखने के लिए तैयार करता है। यह एक गहन आंतरिक चिकित्सा है — अंतर्चिकित्सा — जहाँ विचारों को न अच्छा माना जाता है, न बुरा, बल्कि विचारों के निर्माता को समझने का प्रयत्न करना आवश्यक है कि आख़िर वह इन चित्रों का निर्माण क्यों करता है !
यही प्रक्रिया इस ध्यान वर्कशॉप की आत्मा है — जहाँ हम अपने भीतर की अशांत, बिखरी और दबी हुई परतों का साक्षात्कार करते हैं। यह वर्कशॉप कोई बाहरी समाधान नहीं, बल्कि अंतरतम की चिकित्सा है — एक ऐसा मौन स्थान जहाँ मन परेशान है और भिन्न-भिन्न असहज परिस्थियाँ पैदा करते रहता है ।
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