देह में छिपी साँसों की मौन भाषा:
जब आप दौड़ रहे होते हैं, तब “मैं” देह में एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है जिसमें अत्यधिक खिंचाव होता है। इसी कारण दौड़ते समय साँसें बहुत प्रबलता से, तेज़ गति में, प्रयत्नपूर्वक बाहर निकलती हैं। चूँकि देह की मांसपेशियों में खिंचाव की मात्र इतनी अधिक मात्र में होती है कि उस समय साँसों का बाहर निकलना स्वाभाविक ही होता है । बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी गेंद पर किसी हथौड़े से मारा जाये तो गेंद फूलने के बजे पिचकेगी और उस पिचकने के समय गेंद में भरी वायु बाहर की और निकलेगी । यही विज्ञान इस दौड़ते हुए शरीर पर भी लागू हो रही है जिसमें साँसे बहुत तेजी से बाहर की ओर निकल रही होती है । इस अवस्था में साँसों के निकलने में देह को बहुत अधिक प्रयत्न करना पड़ता है । यह परिस्थिति ही ऐसे उत्पन्न की हुई है जिसमें मन मस्तिष्क और पूरा देह तंत्र साँसों को जल्दी से निकालने और भरने में लगाए हुए है ।
इस तेज़ी की अवस्था में आपके अंतरतम में अवलोकन की प्रक्रिया अत्यंत धीमी पड़ जाती है । वह इसलिए कि उस समय छाती बार-बार साँसों को तेज़ी से निकालने और भीतर भरने का प्रयास कर रहा होता है। चूँकि देह में इतना तीव्र खिंचाव और दबाव उत्पन्न हो चुका होता है, छाती को साँसों को जैसे पिचकाना पड़ रहा होता है। और यह जबरन पिचकने की क्रिया ही छाती को बाध्य करती है कि वह साँसों को भीतर लेकर स्वयं को फुलाए।
यह क्रिया तो तब उत्पन्न होती है जब हमने देह के भीतर एक विशेष प्रकार का तनाव और गतिविधि की परिस्थिति उत्पन्न कर दी होती है। किंतु जब हम देह को स्थिर अवस्था में ले आते हैं, तब साँसों को छोड़ते समय छाती और सम्पूर्ण देह को कोई खिंचाव उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । बल्कि वह बहुत अधिक शांति से साँसों को छोड़ती है , और छोड़ते समय उसका सम्पूर्ण मस्तिष्क और देह तंत्र हीलिंग की ओर अग्रसर हो रहा होता है ।
इसे ही मैं कहता हूँ कि रेचन (साँसों के बाहर निकलने) प्रयत्नविहीन होना चाहिए । यही स्थिति समस्त कृषक तंत्र को त्याग की भावना सिखाती है । इसी को मैं त्याग भी कहता हूँ । क्योंकि देह और मस्तिष्क , इन्द्रियाँ अपने स्वभाव के अनुरूप बिना किसी प्रयत्न के स्वाभाविक रूप से छोड़ रही होती हैं । छोड़ना तो उनके स्वभाव में ही छिपा है । यदि छोड़ना बहुत स्वाभाविक हो तो ग्रहण करने में भी आनंद होता है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जब मस्तिष्क तनाव में न होकर स्थिर अवस्था में होता है, तब जो भी साँसें बाहर की ओर बहुत स्वाभाविक और तनावरहित होकर निकल रही होती हैं, वे बिल्कुल भी प्रयासपूर्ण नहीं होतीं। उस अवस्था में रेचन पूर्णतः स्वतःस्फूर्त हो जाता है। मेरे लिए यही स्थिति सच्ची आध्यात्मिक अवस्था है।
और दार्शनिक अंदाज़ में मैं इसे ऐसे भी कहता हूँ कि “मैंने त्याग व छोड़ने के आनंद को प्राप्त करने के लिए ही ग्रहण करना सीखा है” ।
तो इससे यह सिद्ध होता है कि ‘मैं’ ने अपने ही शरीर और मस्तिष्क में एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी जिसमें अत्यधिक तनाव था — और उस तनाव में साँसों का प्रवाह भी तनाव से भरा हुआ था। विशेष रूप से रेचन, अत्यधिक खिंचावयुक्त और प्रयासपूर्ण था। किंतु जैसे ही देह की वह आंतरिक स्थिति सामान्य की गई, उसी क्षण रेचन भी अत्यंत सहज हो गया — और फिर वही देह, वही मस्तिष्क, भीतर से शांति पाने और स्वयं को हील करने की प्रक्रिया में प्रवेश कर गया।
मैंने इस सिद्धांत के माध्यम से आध्यात्मिकता ही नहीं बल्कि कई ऐसे दैहिक रोगों को भी ठीक किए जो अत्यंत ही भयानक थे ।
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