मुझे कई वर्षों तक पता ही नहीं चला कि मैं अभिनय कर रहा हूँ । अभिनय करने वालों को तो पता रहता है कि वह उसका व्यापार है ,कम से कम अभिनय काल के बाद वह वास्तविक जीवन जीने का प्रयत्न तो करता है । किंतु मुझे तो यह मालूम ही न चला कि मैं अपने पूरे जीवन को अभिनय बनाने के चक्र व्यूह में फँस गया था । उसी अभिनय में खुश होने का प्रयत्न कर रहा था ।
अभिनय के द्वारा मैं स्वयं को समझने का प्रयत्न कर रहा था , कि मैं ये हूँ , तो मैं वो हूँ , मैं संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूँ , मैं अनादि हूँ ,इत्यादि इत्यादि ।
जो मैं हूँ ,उसे समझने का प्रयत्न नहीं किया । किंतु जो मैं नहीं हूँ वो बनने का अभिनय करता रहा । कई वर्षों तक जिसे साधना समझता रहा , यह सब तो अभिनय ही था ।
सत्य तो है कि मैं जो हूँ , उसे ही समझना है , इसमें अभिनय का भला क्या काम ! यह अभिनय जितना बढ़ता है उतना ही स्वयं कि प्रति सानिया बढ़ता है । वह इसलिए क्योंकि जो नहीं हो उसको बनने की कोशिश में जुटे हुए हो । अपना मूल स्वभाव समझने भ्रम फैला रहे हो , जब कि जो हो उसकी उपेक्षा कर रहे हो । इससे यह भी साबित होता है हम अपने नज़दीकी से नज़दीकी तत्वों को नज़रंदाज़ कर देने में विशेषज्ञ हैं । यहाँ तक कि हमारी आँखों अपनी आँखें नहीं दिखती , वह दूसरी की आँखों को आसानी से ही देखता है ।
एक डॉक्टर को अपने अंग नहीं देखते हैं किंतु वह दूसरे के अंगों को देखकर चीड़ फाड़ करता ही है । यह इंद्रियों का स्वभाव है कि वह स्वयं को नहीं बल्कि दूसरों को अधिक देखती हैं । संभवतः यही स्वभाव व लत मन को भी लग जाती है , और अंततः मन भी इंद्रियों के साथ मिलकर तांडव मचाने लगता है ।
किंतु मेरा अध्यात्म कहता है कि इंद्रियों से मन के संबंधों को थोड़े समय के लिए तोड़ दो , और उस मन को इंद्रियों से अलग करके उन तत्वों पर केंद्रित करते हो जो अदृश्य तो है किंतु पूर्ण अस्तित्व में है । जैसे “मैं” स्वयं के लिये अदृश्य हूँ किन्तु मैं उस अदृश्य का द्रष्टा हूँ । मैं पूर्ण अस्तित्व में हूँ । यही मेरा मूल स्वरूप है । इसी के लिए मुझे क्या क्या नहीं करना पड़ा ।
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