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स्वाद ग्रंथियाँ का क़ब्ज़ से सम्बंध

3 years ago By Yogi Anoop

स्वाद ग्रंथियाँ का क़ब्ज़ से बहुत घनिष्ठ सम्बंध है 

स्वाद ग्रंथियों का मस्तिष्क से बहुत अंतरंग सम्बंध होता है , 6 प्रकार के रस (मीठा-खट्टा-नमकीन-चटपटा-कसैला-कड़वा ) मस्तिष्क की कोशिकाओं के भूख को शांत कर देते हैं । यदि इन सभी में किसी भी प्रकार की असंतुलन  दिखता है तो मन मस्तिष्क का संतुष्ट हो पाना सम्भव नहीं होता साथ साथ शरीर के कई अंग जो मल को बाहर करते है , वे अपना कार्य नहीं कर पाते हैं । 

क़ब्ज़ के रोगियों को समस्या तब होती है जब मस्तिष्क किसी एक विशेष स्वाद ग्रंथि को अति सक्रिय कर देता है जिससे व्यक्ति को किसी एक विशेष प्रकार के स्वाद की लत लग जाती है और या तो मन मस्तिष्क की स्वाद ग्रंथियों से जुड़ाव नहीं कर पता है । 

मेरा तो आध्यात्मिक अनुभव है की मस्तिष्क की कोशिकाएँ स्वाद से अपने आप को चार्ज करती है । स्वाद ग्रंथियाँ ही उन कोशिकाओं के फ़्रस्ट्रेशन को शांत करती है । कितना ही अच्छा भोजन कर लो, कितने ही प्रकार के multivitamins ले लो किंतु स्वाद ग्रंथियों के सक्रिय किए बिना मस्तिष्क की कोशिकाओं को शांत नहीं किया जा सकता है, और यदि मस्तिष्क का कोई हिस्सा  शांत नहीं है तो भला आप कैसे शांत हो सकते है । मन की बेचैनी भला कैसे शांत हो सकती  है । साथ साथ यह कहना होगा कि मस्तिष्क की कोशिकाओं के शांत होने के बाद ही अतंडियाँ ढीली होकर मल  को बाहर आसानी से फेंकने में सहयोग करती हैं ।  

स्वाद ग्रंथियों के असंतुष्ट होने पर आँतों में अकड़न होने लगती है , बिल्कुल वैसे ही जैसे मानसिक तनाव में आँतों में अकड़न होती है । इसी अकड़न व स्टिफ़्नेस से क़ब्ज़ जैसी समस्या  पैदा होती है । 

एक उदाहरण से और समझा जा सकता है - 

गांधी जी का स्वाद न लेने का व्रत था । वे भोजन में स्वाद नहीं लिया करते थे , वे जीवन भर कॉन्स्टिपेशन से परेशान रहे । क्योंकि स्वाद ग्रंथियों से मन का सम्बन्ध हटा देने से मन और मस्तिष्क की कोशिकाओं को पूरी तरह से संतुष्टि नहीं मिल पाती है और ध्यान दें असंतुष्ट कोशिकाएँ विशेष रूप से अतंडियों में अकड़न, तनाव व  खिंचाव पैदा कर देती हैं । जिससे आतंडियाँ मल व गंदगी  को आसानी से बाहर कर पाने में असमर्थ पाती हैं  ।    

       

     यह सत्य है कि गांधी जी का भोजन की गुणवत्ता और  मात्रा पर पूर्ण नियंत्रण था किंतु स्वाद ग्रंथियों से मन का सम्बन्ध काटने  से आतंडियों को सकारात्मक संदेश (होर्मोनल सिक्रीशन हो पाती है) नहीं मिल पाता  है जिसके कारण उनमें stiffeners आ जाती है और परिणामस्वरूप क़ब्ज़ हो जाता  है । मेरे प्रयोग में ऐसे भी लोग दिखे जो घंटों घंटों तक शरीरिरिक अभ्यास करते हैं , पेट के हिस्से का विशेष अभ्यास करते हुए भी पाए जाते हैं और साथ साथ उनके भोजन में गुणवत्ता भी बहुत अच्छी होती है किंतु इन सभी के बावजूद भी  उनमें क़ब्ज़ की समस्या दिखती है । 

ऐसा क्यों होता है ? 

इसका मूल और प्रमुख कारण है कि मन का स्वाद ग्रंथियों से संतुष्टि का न हो पाना । अर्थात् मस्तिष्क की कोशिकाएँ स्वाद से संतुष्ट नहीं पा रही हैं । उन्हें संतुष्ट करना भोजन करने वाले का कर्तव्य है , भोजन को निगलना कर्तव्य नहीं है । भोजन के निगलने का अर्थ है कि किसी का कार्य (स्वाद का कार्य पेट और लिवर को देना) किसी अन्य को दे देना । लिवर का कार्य भोजन के पाचन का है स्वाद लेने का नहीं , इसलिए स्वाद ग्रंथियों का संतुष्ट होना पाचन और निष्कासन का सहायक तत्व माना जाता है । 

यह तक कि इन स्वाद ग्रंथियों के सकारात्मक संदेश से ही पाचन की क्रिया की  शुरुआत होती है । 


ध्यान देने योग्य तत्व 

1- भोजन की गुणवत्ता । 

2- भोजन का समय ।

3- भोजन में स्वाद ।

4- भोजन में जल्दीबाज़ी नहीं । 

5- शारीरिक-मानसिक और ऐंद्रिक (इंद्रियों) अभ्यास । 

उपर्युक्त सभी तत्वों में संतुलन होना अनिवार्य है तभी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य मिल सकता है । 


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