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सुख की कल्पनाओं का रोग !

4 years ago By Yogi Anoop

     ऐसा लगता है कि घर बन जाएगा तो खुश हो जाएँगे , शादी हो जाएगी तो खुश हो जाएँगे , बच्चे पैदा हो जाएँगे तो खुश हो जाएँगे , espeacially लड़का ही होगा तो खुश हो जाएँगे क्योंकि उससे वंश में अगली वृद्धि होगी । कुछ लोग इसी को धन कमाने से जोड़ते हैं कि यदि इतना कमा लेंगे तो सरलता मिल जाएगी इत्यादि इत्यादि । 

कहने का अर्थ ये है कि ये काम हो जाएगा तो हम सुखी और शांत जीवन जी लेंगे । किंतु यदि गहराई से सोचो हम लोग वर्तमान अवस्था में सुखी नहीं हैं इसीलिए भविष्य में सुखी होने की कल्पना करते हैं । यद्यपि ये भविष्य में ख़ुशी का स्वप्न देखना बुरा नहीं है । किंतु यदि हम इसके और डिटेल में जाएँ तो क्या पाते हैं ! 

कि हम अपने स्वयं से खुश नहीं हो आ रहे हैं तभी तो भविष्य में कुछ न कुछ कार्य के होने से संतुष्ट होना चाहते हैं । जबकि उस काम के होने के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि आप पूरी तरह से संतुष्ट हो जाएँगे । 

यदि मैं एक उदाहरण दूँ , तो सामान्य व्यक्ति क्या कल्पना करता है , कि शादी हो जाएगी तो सब शांति मिल जाएगी , पूरा जीवन सुखमय हो जाएगा । किंतु शादी के बाद का साइड इफ़ेक्ट उसको मालूम तो है नहीं । उसे केवल एक ही कल्पना है कि पर्मनेंट सेक्स मिल जाएगा । उसी में उड़ रहा होता । उसी में स्वप्न देख रहा होता है ,  ऐसा नहीं है लड़के ही ऐसी कल्पनाएँ करते हैं लड़कियाँ भी इसी प्रकार से कल्पना करती हैं । किंतु शादी होने के बाद जब उसका साइड इफ़ेक्ट होने लगता है तब चारो खाने चित्त हो जाते हैं । क्योंकि शादी के बाद का साइड इफ़ेक्ट बहुत बड़ा होता है , पूरा जीवन हिला देता है । 

उसके बाद तो फिर अपने आस पड़ोस व मित्रों से या तो पति की बुराई करते फिरते हैं या पत्नी की बुराई कर रहे होते हैं । और कुछ लोग तो उस पर्मनेंट सेक्स से ऊब कर कुछ और तरकीबें ढूँढने लगते हैं जैसे फ़िल्म वाले प्रेम लीला करते हैं । 

कहने का अर्थ है कि हम भविष्य में सुख की कल्पना ही रह जाते हैं, ये कल्पना एक तरह का रोग हो जाता है । यदि मैं अपनी बात करूँ तो और अधिक समझ आएगा । आज के 25 वर्ष पहले अपनी साधना के दौरान मैं स्वयं की मृत्यु की कल्पना करके बहुत खुश होता था । यद्यपि मेरे विकास के लिए ये एक अच्छी कल्पना हो सकती है किंतु ये तो मात्र एक कल्पना है  । अब मृत्यु की कल्पना करके खुश होने की आवश्यकता नहीं है । अब मैं वैसे ही खुश और शांत हूँ , क्यों - क्योंकि पूरा जीवन व्यवहार ही शांतिमय और संतुष्ट हो गया है । 

ध्यान दो रोग तभी आता है इस प्रकार की कल्पनाओं में उलझ जाते हैं । इन्ही में उलझते उलझते मन और शरीर में भय , ऐंज़ाइयटी , इत्यादि रोगों का निवास हो जाता है । 


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