‘सोचना’ आत्म साधना में सबसे बड़ी बाधा है । जितना सोचते जाते हैं उतना ही सोचने वाला स्वयं से दूर होता चला जाता है । क्योंकि सोचने वाला स्वयं के बारे में कभी भी सोच नहीं सकता है । सोचना तो केवल उस विषय का ही हो सकता है जो दृश्यमय है व पंच इंद्रियगम्य है ।
सोचने वाला पाँचो इंद्रियों से किसी भी वाह्य विषय की हू-बहू शक्ल की प्रतिलिपि को अंदर ग्रहण करने की कला रखता है । उसी कला का इस्तेमाल ‘स्व’ के लिए करता है । किंतु स्वयं की शक्ल कैसे बना सकता है ! स्वयं की तो कोई शक्ल है ही नहीं , उसका रूप-प्रतिरूप बन नहीं सकता है ।
किंतु एक सामान्य साधक ‘स्व’ की शक्ल को बनाने का प्रयास करता है और उसकी पूजा अर्चना करने लगता है । जैसे आत्मा (सोचने वाला) बिंदु है , भूमध्य में स्थित है इत्यादि इत्यादि ।
बजाय कि उसे समझने के वह उसे कल्पनाओं के में से समझने का प्रयास करता है । कुछ आध्यात्मिक गुरु कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा को ही देखो । इसका अर्थ है कि आप सोचने और इंद्रियों पर बोझ डाल रहे हो । मन आत्मा को भिन्न भिन्न रूप देने लगता है यह कहते हुए कि वह रूप रहित है । किंतु सत्य है कि स्वयं के बारे में सोचना सम्भव नहीं क्योंकि उसे कभी देखा नहीं जा सकता है, उसने ही तो सबको देखा है तो उसको भला कोई कैसे देख सकता है । जब वह पंचेंद्रियगम्य नहीं है तब उसकी संवेदना भी नहीं हो सकती है । उसको सूँघ भी नहीं सकते क्योंकि वही तो सूंघता है , उसे छू भी नहीं सकते क्योंकि वही तो सबको छूता है, उसका स्वाद भी नहीं लिया जा सकता है क्योंकि वही तो स्वाद लेता है ।
यदि वह उसके बारे किसी भी प्रकार का चिंतन करता है तब इसका अर्थ है उसके मन में स्वयं से सम्बंधित कोई वस्तु है । वह उसे प्राप्त करना चाहता है । प्राप्त करने की इक्षा मात्र ही सोचने की प्रक्रिया को स्वतः ही जन्म दे देती है ।
यही सबसे बड़ी बाधा है । वह प्राप्य नहीं है , उसके लिए सभी वस्तु प्राप्य हो सकती है किंतु वह स्वयं के लिए भला कैसे प्राप्य हो सकता है ।
जब सोचने की प्रक्रिया ही रोक दी जाती है तब उसे अपना ज्ञान हो जाता है । अब सोचने की प्रक्रिया कैसे समाप्त हो ?
इसके लिए समझना है , यहाँ पर किसी भी साधक को यह शंका हो सकती है समझना भी तो सोचने की ही एक प्रक्रिया है । ध्यान दें ‘समझने’ की प्रक्रिया में सोचने की प्रक्रिया बहुत ही कम चलती है । यह अवलोकन ही है , कुछ ऐसे है जैसे एक व्यक्ति दर्पण को नहीं देखता बल्कि दर्पण में स्वयं को देखता है ।
उसी प्रकार साधक स्वयं का ज्ञान करने के लिए वस्तु को ढाल बनाता है । बिना विषय के स्व का ज्ञान असम्भव है ।
जैसे बिना देह का ही अनुभव करने पर अनुभव कर्ता का अनुभव होता है , बिना देह और इंद्रियों के स्वयं का अनुभव कैसे हो सकता है ।
इसीलिए पुरुष स्वयं के ज्ञान के लिए प्रकृति पर निर्भर है । यह प्रकृति ही है जो पुरुष को को स्वयं का ज्ञान करवाती है ।
शरीर स्वयं के शरीर का अनुभव नहीं कर सकती है ।
शरीर के सुख दुःख का जो अनुभव करता है वही आत्मा है ।
आँखे स्वयं की आँखो को नहीं देखती हैं , बाह्य संसार को देख पाने का अर्थ ही है कि दोनों आँखों में देखने की क्षमता है ।
आँखों और जबड़ों को ढीला करो और देखो विचार शांत हो जाएँगे ।
“साधना में सोचना तभी कम व समाप्त हो सकता है जब स्वयं की समझ बढ़ती है”
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