स्वाँस को अंदर लेने का अर्थ सिर्फ़ ऑक्सीजन की वृद्धि ही नहीं है । सामान्यतः प्राणायाम विशेषज्ञ साँसों को बहुत गहरी व अंदर भरने पर ज़ोर देते हैं । उनका कहना होता है कि प्राणायाम के दौरान साँसों को जितना भर सको भर लो और जितना उसे निकाल सको निकाल दो । उनके अनुसार यही प्राणायाम का मूल स्वरूप है किंतु मैं प्राणायाम की इस प्रणाली का आनुभविक दृष्टि से खंडन करता हूँ ।
मेरे अनुभव में यह दृष्टिकोण बहुत ही ख़तरनाक है । यह न केवल फेफड़ों पर दुष्प्रभाव छोड़ता है बल्कि मन और बुद्धि को भी भ्रमित कर देता है । क्योंकि इसमें मन की एकाग्रता सिर्फ़ भरने और निकालने पर है । -
प्राणायाम की इस प्रक्रिया से मन की प्रवृत्तियों को बदल नहीं सकते हैं । क्योंकि मन को साँसों को भरने में किसी समझ का उपयोग नहीं करना पड़ रहा है । इस प्रकार के लोगों में भोजन को भी आवश्यकता से अधिक खाने की आदत हो जाती है ।
प्राणायाम में नियंत्रण सिखाना है न कि सिर्फ़ भरना और छोड़ना । इसीलिए सामान्य लोग जो प्राणायाम का अभ्यास इस बेढंगे तरह से करते हैं उनके अंतरतम में कभी परिवर्तन नहीं हो पाता है ।
ध्यान दें जैसे वह आँख बंद करके साँसों को पूरी तरह से भरता है उसी प्रकार भोजन को भी अंदर भरेगा । इसीलिए मैं भास्त्रिका जैसे प्राणायाम के अभ्यास की बहुत अधिक सलाह नहीं देता हूँ । यद्यपि ऋषियों ने भी इस प्राणायाम को आध्यात्मिक प्राणायाम नहीं कहा है ।
प्राणायाम का उद्देश्य साँसों को व्यवस्थित करना है । सत्य तो यह है कि उस साँसों के माध्यम से स्वयं को व्यवस्थित करना होता है । साँसों को इतने अच्छे व्यवस्थित तरीक़े अंदर लिया जाना चाहिए जिससे मन को उस व्यवस्था का ज्ञान हो जाये । मन को इन साँसों के माध्यम से इतना ज्ञान हो जाना चाहिए कि साँसों को ही नहीं बल्कि किसी भी वस्तु को अंदर लेते समय धैर्य का किस प्रकार इस्तेमाल होना चाहिए । सत्य तो यह है कि साँसों को अंदर लेते समय मन को धैर्य सिखाना होता है । जब कोई वस्तु ग्रहण किया जाता है उसमें सबसे अधिक धैर्य का इस्तेमाल होना चाहिए । अन्यथा साँसों को बहुत अधिक मात्रा में भरने के बावजूद साँसों को पचा नहीं सकते हो । जैसे चाहे जितना अच्छा भोजन कर लो , यदि पेट में आवश्यकता से अधिक भरने की कोशिश करते हो तो वह पाचन की व्यवस्था को गड़बड़ कर देगा । उसी प्रकार प्राणायाम में साँसों को बहुत अधिक मात्रा में भरने का भ्रम त्याग देना चाहिए ।
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