वर्तमान में हो रही घटनाओं का दोहराव असंभव है, क्योंकि हर पल परिवर्तन होता रहता है। जैसे लगता है कि हम नदी के एक ही जल में स्नान कर रहे हैं, लेकिन एक क्षण बाद देखें, तो उसी प्रवाह में से कितना जल निकल चुका होता है। इससे सिद्ध है कि एक जल में स्नान करना असंभव है । किंतु व्यक्ति स्वभावगत परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाता है । उसे ऐसा आभास होता है कि परिवर्तन को देखते देखते स्वयं भी परिवर्तित होने लगता है । संभवतः इसीलिए व्यक्ति की लालसा होती है कि वह किसी स्थिर वस्तु या आधार को पकड़ ले, ताकि उसमें स्थिरता आ सके। स्थिरता का बोध हो सके ।
संभवतः इसी कारण कुछ गुरु परंपराओं में शब्दों को स्थिरता का आधार बनाया गया। उन्हें लगा कि यदि ध्यान को शब्दों पर एकाग्र किया जाए तो चित्त शांत और स्थिर हो जाएगा। यह विचार कुछ सीमा तक, विशेषकर पढ़ाई के समय, उचित भी था, जहाँ शब्दों पर टिकना महत्वपूर्ण माना जाता है।
लेकिन उम्र के एक पड़ाव के बाद, जैसे विवाह और व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करने के बाद, शब्दों को स्थिरता का आधार बनाना एक भूल हो सकता है। इस काल में अत्यधिक व्यावहारिकता की आवश्यकता होती है, जिसमें सभी इन्द्रियों का संपूर्ण उपयोग आवश्यक होता है।
मैंने ऐसे बच्चों और युवाओं पर भी अध्ययन किया है, जो शब्दों को पकड़ने में अत्यधिक अभ्यस्त होते हैं और परिणामस्वरूप व्यावहारिकता से दूर हो जाते हैं। उनमें अवसाद के लक्षण अधिक दिखाई देते हैं क्योंकि शब्दों में जीने की आदत उनकी व्यवहारिकता में बाधा बन जाती है। जैसे किसी फल के स्वाद को केवल शब्दों में बताना असंभव है; स्वाद का असली बोध करने के लिए उसे चखना आवश्यक है। इसलिए मैं कहता हूँ कि शब्दों में जीना संभव नहीं है, क्योंकि शब्द तो अपने आप उड़ जाते हैं। वे अनुभव की अनुभूति का आभास जरूर देते हैं, लेकिन वह वास्तविक नहीं होता।
इसी विचारधारा के आधार पर कुछ गुरु परंपराओं में शिष्यों को मंत्रों के अभ्यास पर बल दिया गया। कुछ परंपराओं में दैनिक क्रियाओं के दौरान मंत्रों के मानसिक उच्चारण की सलाह दी जाती है।
अगर दैनिक जीवन में अन्य कार्य करते समय बार-बार किसी मंत्र का मानसिक उच्चारण किया जाए, तो इसका अर्थ है कि हम एक समय में दो कार्य कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क कुछ वर्षों में थक जाता है और शरीर में कई रोग उत्पन्न होने लगते हैं, जिससे जीवन का अर्थ व्यर्थ लगने लगता है।
यह मानना गलत होगा कि मंत्र सिद्धांत अर्थहीन है। मेरे अनुभव में, यह आत्मबोध का एक सशक्त साधन है, किंतु इसके लिए कुछ नियमों का पालन करना अनिवार्य है। ध्यान दें कि मंत्र का उद्देश्य शब्दातीत अवस्था प्राप्त करना है, न कि प्रतिपल शब्दों का उच्चारण करना।
मंत्र सिद्धांत के अनुपालन के लिए कुछ सुझाव:
इस प्रकार, मंत्र सिद्धांत का अभ्यास हमें निःशब्द अवस्था और आत्मबोध की ओर ले जाने में सहायक होता है।
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