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साधना में प्रयत्न की सार्थकता

3 years ago By Yogi Anoop

    आध्यात्मिक साधना में अभ्यास (प्रयत्न) और वैराग्य (शिथिलता) का सर्वाधिक महत्व है। आज का विषय  साधना मे प्रयत्न की सार्थकता पर है ।

साधना मे प्रयत्न की सर्थकता प्रमुखतः दो बातो पर निर्भर करती है । प्रथम :साधक का साध्य क्या है वह किस वस्तु को पाने के लिये दीर्घकाल तक प्रयत्न करना चाहता है।  द्वितीय : साध्य स्पस्ट होने के बाद उसको प्राप्त करने के लिये उसने किस साधन का चुनाव किया और क्या वह साधन उचित भी है अथवा नही । उसे भी वैज्ञानिक होना चाहिये अन्यथा साध्य के ज्ञान होने के बावजूद साधना में सफलताा  प्राप्त न हो सकेगा । वह अन्धेरे मे तीर मारने के समान होगा । जैसे कुछ गुरू तो ऐसे अभ्यास पर जोर देते हैं जिससे शरीर को अनन्त वर्षो तक जीवित रखने की बात कही जाती है। यद्वपि ऐसा कोई भी अभ्यास परिवर्तनशील शरीर को अनन्त वर्षो तक जीवित रखने मे सक्षम नही है । फिर भी असम्भव को सम्भव बनाने का अनर्गल प्रयत्न जीवन भर जारी रहता है । साधक को इस अखण्ड सत्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि प्रयत्न व अभ्यास से किसी वस्तु के मूल स्वरूप को नही बदला जा सकता है जैसे देह का मूल स्वभाव परिवर्तनशीलता है तो उसको किसी भी तरह से अपविर्तनशीलता मे परिवर्तित नही किया जा सकता है । गंगा के पवित्र पाानी को निकााल कर उससे पूरियां नही छानी जा सकतीं हैं । किन्तु धर्म मे ऐसी काहानियां बहुतेरी प्रचलित है , तिल से तेल नही बल्कि गंगा के पानी को ही अपने आध्यात्मिक साधना के बल से तेल मे परिवर्तित कर देना।


 आध्यात्मिक साधना में इस प्रकार के प्रयत्न का कोई भी महत्व नही होता है । यदि कोई साधक ऐसा करता है तो उसका निरर्थक होगा । इसलिये साधक को दो बातों पर  सर्वप्रथम उसके लक्ष्य व उद्देश्य पर गहन चिन्तन करना चाहिये और फिर उसके बाद उसको प्रााप्त करने के लिये उपयुक्त साधन का चुनाव करना चाहिये, और उस साधन का अभ्यास निरन्तरतापूर्वक होना चाहिये । 


     महर्षि पातंजलि ने सर्व प्रथम लक्ष्य की बात कही । उनके अनुसार अपने स्वरूप मे स्थित होना ही जीवन का साध्य है ।  उसके बाद उन्होने उचित साधन तथा उसके अभ्यास की निरन्तरता पर जोर दिया ।  उनका कहना है कि इस प्रकार के प्रयत्न की निरन्तरता से चित्त मे दृढता बन जाती है तथा उससे शंकारहित साध्यानुभूति होती है । चूँकि प्रतिदिन की अच्छी व बुरी परिस्थतियों से चित्त मे वृत्तियों का आवागमन बना रहता है जिससे मनुष्य विचलित होता रहता है । इस कारण ज्यादातर सधकों की साधना बींच मे ही छूट जाती है । क्योकि वह परिस्थतियों से स्वार्थवश समझौता कर लेता है । किसी भी साधना के इस प्रकार अनिरन्तर रहने पर फल की प्राप्ति नही हो सकती है । इसीलिये श्रृषि ने अभ्यास की निरन्तरता पर अधिक जोर दिया । प्रतिदिन की परिस्थतियॉं भिन्न भिन्न होतीं है किन्तु व्यक्ति जिस सिद्धान्त पर प्रतिदिन की परिस्थतियों का सामना करता है वह सिर्फ एक ही हो सकता है भिन्न भिन्न नही । सिद्धान्त के आधार पर परिस्थतियों को समझना और उस पर साधक को विजय हासिल करना होता है।यही उसके प्रतिदिन का अभ्यास है ।साधक जब अपने अभ्यास को थोडी देर एकान्त मे बैठने तक ही न सीमित करने की बजाय साथ साथ दैनिक जीवनचर्या से जोड देता है तभी जाकरके वह साधना निरन्तर चल सकती है ।यदि साधना को दैनिक जीवन चर्या से न जोड़ा जाय तो वह साधना निरन्तर कभी भी नही हो सकती है ।अर्थात इस तरह की अनिरन्तर साधना से साधक को कभी भी लाभ नही हो सकता है ।

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