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साधना में ‘अहंकार’ का भ्रम

3 years ago By Yogi Anoop

साधना में ‘मैं’ का भ्रम (अथ योग अनुशासनम)

  उस युवा महात्मा का कहना था कि मैने बहुत कम उम्र मे साधना की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त लिया है । चेहरे पर दिव्यता झलक रही थी तथा उनकी मांशपेशिंया सुगठित थी । प्रवचन अत्यंत ही संयमित तथा भाषणयुक्त था । उनकी बातों में सवसे अधिक जोर इस बात का था कि उन्होने एक नई योगिक विधाओं को जन्म दिया है अर्थात एक ऐसी खोज की जो अभी तक नही हो पाई थी । साथ साथ वे इस बात पर भी अप्रत्यक्ष रूप से सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे थे कि वह परमात्मा ही है और उसको परमात्मा के अवतार के रूप मे ही देखा जाना चाहिये । उनकी आंखो में बेचैनी स्पस्ट देखी जा सकती थी कि वह साधक जैसा बनने की अपेक्षाकृत परमात्मा कहलवाने के लिये कितना प्रयत्नशील हैं । बात बात मे चेहरे मे परिवर्तन लाते और कभी आखों को बन्द करके रामकृश्न परमहंश की तरह अखंड समाधि मे चले जाते या चले जाने का स्वांग रचते  इसमें अन्तर कर पाना मुश्किल था । और फिर बाद मे समाधि तोड़कर अमरता पर ऋंगार रस से भरा प्रबचन करने लगते । उनकी भाषा पाखण्डयुक्त थी व ज्ञानयुक्त इसमे अन्तर कर पााना आम लोगों के लिये अत्यन्त ही मुश्किल था । 

      यह परम सत्य है कि बहुत अलंकारिक और विषेषणों से भरी भाषाओं के पीछे कहीं न कहीं विक्षिप्तता छिपी हुई होती है । अहंकार छिपा हुआ होता है । इस देश में अवतारवाद का प्रचलन इतना बढ़ चुका है कि मात्र उत्तर प्रदेश में भगवान कृष्ण के लगभग डेढ़ लाख अवतार हैं, तो पूरे देश व विश्व में कितने होंगे । कहने का मूल अर्थ है कि हम स्वयं को प्रतिपादक अवतारी भगवान इत्यादि घोषित करने का निरन्तर प्रयत्न करते रहतें हैं । जब कि वैदिक और औपनषदिक ऋषियों ने स्वयं द्वारा लिखित पुस्तकों में अपना जिक्र प्रतिपादक के रूप में तक नही किया । वेदों और उपनिषदों को कौन लिखा ये भला कौन जानता है ।

    महर्षि पातन्जलि कृत “पातंजलि सूत्र” के प्रथम सूत्र से यह ज्ञात हो जाता है कि उनकी साधना कितनी बलवाान थी । इसमें उन्होने स्वयं के निष्कपट ज्ञान का परिचय भी दिया . कि मैं इस अनमोल ज्ञान का जन्मदाता नही बल्कि पुनरूद्वारक मात्र हूँ । अथयोगानुशासनम अर्थात सिर्फ परम्परा से प्राप्त योग का ही मै व्याख्यान कर रहा हूं । उनमे यह बेचैनी कदापि नही दिखती कि वे किसी दर्शन के जन्मदाता व भगवान कहलायें । यह सामान्य भाषा को कह कर महर्षि ने अपने सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञाान का परिचय दिया। पूर्व काल मे यह परम्परा लिखित रूप मे नही थी बल्कि सिर्फ गुरू शिष्य तक ही सीमित हुआ करती थी । इसी को उपनिषद काल कहा गया । जिसमे शिष्य गुरू के नजदीक बैठ कर आध्यात्मिक समस्याओं पर चर्चा करता था । गुरू अपने शिष्य को व्यावहारिक रूप से ज्ञान का अनुभव करवाता था किन्तु कुछ काल के बाद इस परम्परा का पुनरूद्वार लिखित रूप मे भी होने लगा । जो कहीं न कहीं ठीक भी था । महर्षि ने भी इस महत्वपूर्ण ज्ञान को लिखित रूप मे संसार को दिया । ऐसा करके महर्षि ने योग दर्शन की अनादिता को सिद्ध किया । इस प्रकार की बातें करके उन्होंने अपने महान आत्मज्ञाानी होने का पूर्ण परिचय दिया । 

किन्तु आधुनिक काल में जिस प्रकार आध्यात्म व्यापार में ईश्वर बनने की होड़ जिस प्रकार लगी है उससे तो यही लगता है कि समाज को ज्ञान कम भ्रम ज्यादा मिलेगा । इस प्रकार से उसके जीवन में होने वाले संसय का निराकरण संभव नही । उसके संसय का निराकरण तो अत्म ज्ञान से ही सम्भव है जिसमें किसी से मिलन की नही बल्कि स्वयं में स्थित होने की कला सिखलायी जाती है।

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