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पूजाविधि का मन मस्तिष्क पर प्रभाव

3 years ago By Yogi Anoop

पूजाविधि की पुनरावृत्ति का मन मस्तिष्क पर प्रभाव 

             पूजाविधि व अर्चना की प्रक्रियायें सौन्दर्य और सुव्यवस्था से भरी दिखायी देतीं हैं  तथा साथ साथ कुछ ऐसे वातारण प्रकट करती हैं जिससे उसके अभ्यस्त को ऐसा प्रतीत होता है कि उसने सन्मार्ग पर चलने का प्रयत्न किया है । इससे उसको ऐसा आभष होता है कि वह ईश्वरीय व परमार्थिक मार्ग पर चल रहा है । उसको इस बात की कहीं न कहीं आत्म संतुष्टि होती है कि उसने कोई परमार्थिक कार्य किया है जिसके माध्यम से उसके द्वारा भूत मे किये गये जाने-अनजाने दुष्कर्मो से मुक्ति तथा भविष्य मे मिलने वाले दुख से वचाव हो सकता है ।

वर्तमान में भी मन को एक प्रकार की अंतरतम की शांति प्राप्त होती दिखायी देती है किंतु यह जल्द ही मानव मश्तिष्क और हृदय पर अपना प्रभाव वैसे ही छोड़तीं हैं जैसे कोई उत्तेजक पदार्थ हो । 

कुछ ऐसे ही आध्यामिक गुरूओं द्वारा दिये गये गुरू मन्त्रों की पुनरावृत्ति का प्रभाव भी मानव मश्तिष्क पर एक आध्यात्मिक नशे के रूप मे पड़ता है । इसकी पुनरवृत्ति कुछ महीनों व वर्षों तक मन में शांति और संतुष्टि की एक वृत्ति डालती है । वह वृत्ति, वह अभ्यास मन मस्तिष्क को अनुशासन में ढलने का प्रयास करता है , और उस अनुशासन से मन का एक सीमा तक शांत होना स्वाभाविक भी होता है, उनसे तो कई गुना बेहतर होती जो अनुशासनहीन हैं , किंतु ध्यान दें मन की उस पुनरवृत्ति से ऊपर भी उठना होता है, उसके परे जाना आवश्यक होता है अन्यथा वर्तमान का सुख नहीं प्राप्त हो सकता है । 

मन की पुनरवृत्ति से प्राप्त सभी सुख नगण्य हैं वर्तमान में प्राप्त होने वाले सुख से । यह सुख चरम है , यही सुख को आनंद कहते हैं जो पूर्ण रूप से अनुभवतीत की ओर ले जाती है । जिसमें मन स्वयं को मारना सिखा कर स्वयं को अमन की ओर ले जाता है । 

    किंतु मन की पुनरवृत्ति के अभ्यस्त हो जाने पर यह एक मानसिक प्रक्रिया भर ही रह जाती है । और यह एक ऐसी यान्त्रिक पुनरावृत्ति मात्र रह जाती है जिसमें मन स्वयं के पंखो को ही काट कर बिखेर देता है यही कारण है कि संसार में रहकर भी संसार को नहीं जान पाता है । 

यह भी सत्य है कि इस मानसिक पुनरावरूत्ति से होने वाली संवेदनायें (काल्पनिक सुख) बहुत ही सुखद और उदात्त होतीं हैं । किन्तु इसके बावजूद ये प्रत्यक्ष अनुभव नही है । यह सुख की संवेदनायें (कल्पनाएँ) मात्र हैं, किसी एक विशेष कल्पना के द्वारा प्राप्त क्षणिक सुख मात्र है, किंतु यह वास्तविक वर्तमान से प्राप्त सुख नही है । क्योंकि यह वर्तमान नही है । और ध्यान दें वर्तमान की पुनरावृत्ति कभी सम्भव नही हो सकती है । 

      वर्तमान में मन के अंदर सुख की संवेदनाओं से सुख पैदा न हो कर प्रत्यक्षरूप मे सुख प्राप्त होता है । वर्तमान में मन इन्द्रिय तथा शरीर में एक तारतम्यता रहती है । किन्तु पुनरावृत्ति में मन का न तो इन्द्रियों से और इन्द्रियों का न तो शरीर से स्वाभाविक सम्बन्ध रहता है । मन स्वयं के द्वारा काल्पनिक सुख का निर्माण कर लेता है और उसी में रहने के अभ्यस्त कर लेता है बजाय कि वर्तमान से सुख को प्राप्त करने के ।  यही कारण है उस यान्त्रिकता से सुख  प्राप्त होने के बावजूद भी यह सत्यानुभव नही । इस प्रक्रिया से आत्म दर्शन सम्भव नही । आत्म दर्शन में इस प्रकार की यान्त्रिक पुनरावृत्ति सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखाा जाता है ।

    मेरे आध्यात्मिक अनुभव में आत्म दर्शन हो या संसार का दर्शन हो, दोनों  के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मन का जागरण आवश्यक है । और मन का जागरण तभी सम्भव है जब उसमे अधिक पुनरावृत्ति न हो । यह मन तो आनुभविक संग्रहों के नसे मे धुत है और उसी मे धुत रहना भी चाहता है । उसमे निरन्तर बहना चाहता है । यही उसके मनेविनाश का परिचायक है । 

इसलिये यर्थाथ का आकलन आवश्यक है। उसी मे सम्पूर्ण आनन्द तथा उसी मे सत्य का प्रकाश  भी सम्भव है ।

गम्भीर साधकों से मेरा आग्रह है कि यदि वे आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ना चाहतें हैं तो ध्यान मे पुनरावृति पर जोर न दें । ध्यान में किसी वस्तु की कल्पनाओं से सुख प्राप्त करने की आशा त्याग दें और मन को जागृत करके उसे अमन में स्थित करने का प्रयास करें । 

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