मानव चेतना और अनुभव के बारे में बात करते हुए, हम यह समझते हैं कि हमारा मन उसी वस्तु के बारे में सोच सकता है, जिसे वह पूरी तरह से जानता हो या जिससे बिलकुल अपरिचित हो। दो ही अवस्थाएँ होती हैं: एक, जिसमें हम किसी वस्तु या घटना का पूर्ण अनुभव कर चुके हुए होते हैं, और दूसरी अवस्था, जहाँ पर किसी वस्तु का बिना कोई अनुभव नहीं किए उसकी सिर्फ अवधारणा या मान्यता बनाना ।
जब हम किसी वस्तु या घटना का अनुभव कर चुके हुए होते हैं, तो उसे लेकर कल्पना या फैंटेसी की गुंजाइश कम हो जाती है। जैसे एक साधारण उदाहरण लें—केला। यदि आपने केले को खाया है और उसके स्वाद को अनुभव किया है, तो उसके स्वाद के बारे में बहुत काल्पनिक बातें करना संभव नहीं है। यह सत्य है कि उस सत्य स्वाद-अनुभव को पूर्ण रूप से शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है । उसे शब्दों में जितना अधिक व्यक्त करने का प्रयत्न किया जाएगा उतना ही असत्य भाषण होता जाएगा । क्योंकि स्वाद के अनुभव को तो मात्र कुछ शब्दों में व्यक्त करने से ही चल जाएगा ।
इसके दूसरे पक्ष से संबंधित बात कर लेते हैं - यदि किसी व्यक्ति ने उस फल के स्वाद का अनुभव किया ही नहीं, मात्र सुना हुआ है तो वह उस स्वाद की कल्पना ही तो करेगा ।
यहीं से एक गहरे दर्शन का आरंभ होता है—फैंटेसी व मनो काल्पनिक जगत का स्थान केवल वहीं होता है जहाँ साक्षात अनुभव की कमी होती है। जब तक किसी दृश्य व वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते तब तक मन उस दृश्य के बारे में वास्तविकता से कहीं दूर कहानियाँ ही गढ़ेगा । जैसे भूत प्रेत से संबंधित विषय की काल्पनिक कथाएँ । भूतों को किसी ने देखा नहीं होता है , बस कथाएँ इस बात पर चल रही होती हैं कि मेरे किसी दूर के रिश्तेदारों से उनकी भिड़ंत हो गई थी । किसी से भी पूंछ कि भूतों से वार्तालाप हुआ था तो वह कहता है कि अमुक व्यक्ति का हुआ था । उसका नहीं हुआ । फिर भी उसका भय उनके अंदर मौजूद है ।
कहने का मूल अर्थ है कि मन जैसे जैसे काल्पनिक अवस्थाएं गढ़ता जाता है वैसे वैसे और ही वास्तविकता से दूर होता जाता है । वह सिर्फ़ मन मस्तिष्क का एक खेल मात्र रह जाता है । किंतु इसके उलट कोई वस्तु नजदीक रहती है है तो उसे अनुभव करना आसान हो जाता है । और जैसे ही अनुभव प्रारंभ होता है वैसे ही वैसे ही मन के काल्पनिक पक्ष का समापन हो जाता है । मन व्यावहारिक अनुभव में व्यस्त हो जाता है । विचारों में रुकाव आ जाता है ।
एक अन्य संदर्भ में इसे और समझने का प्रयास कर सकते हैं । जैसे देह की बात करें—यदि किसी ने स्वयं के देह, मन और इन्द्रियों की प्रक्रियाओं को बहुत गहराई से अनुभव किया है, तो उनसे संबंधित किसी अनावश्यक कल्पना या फैंटेसी की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है । आप शरीर, इन्द्रियों और मनोजगत के भीतर के हर अनुभव को प्रत्यक्ष महसूस कर रहे होते हैं । संतुष्टि का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से आंतरिक है, इसलिए कल्पना की कोई गुंजाइश नहीं बचती।
परंतु जब देह के अनुभव में कमी होती है—जब बाहरी दुनिया में हमारी भागीदारी अधिक और भीतर की अनुभूति कम होती है—तो देह को लेकर कल्पना व फैंटेसी प्रबल हो जाती है। यह मानव मन के स्वभाव का एक सत्य पक्ष है कि जिस वस्तु से जितना वह अपरिचित होता है उतना ही उस वस्तु से भयभीत होता हैं ।
जैसे, 99 प्रतिशत लोग मेडिकल चेकअप से सिर्फ इसलिए भयग्रस्त होते हैं क्योंकि उन्हें कहीं किसी रोग के होने का ज्ञान न हो जाये ।
अब यहाँ पर योग साधना की महत्ता दिखती है । इस साधना में प्रत्यक्ष अनुभव पर अधिक जोड़ दिया गया । यहाँ तक कि सबसे बड़ा प्रत्यक्ष वह स्वयं ही है जो उसकी आत्मा है । मैं कहता हूँ कि प्रत्यक्ष को आधार बनाकर ही तो योग चलता है । इससे वृहद अनुभव भला अन्य किसी का नहीं ।
स्वयं के भीतर गहराई से उतरना, अपने अस्तित्व को, अपने शरीर और मन को अनुभव करना। जितना स्वयं को समझते जाते हैं, उतनी ही काल्पनिक जगत की सकता समाप्त होने लगती है ।और साथ साथ विचारों की आवश्यकता अनुभव को प्रकट करने की ही रह जाती है । ध्यान दें विचार केवल तब तक अस्तित्व में रहते हैं जब तक अनुभव की कमी होती है। एक बार जब अनुभव हो जाता है, तो विचार स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि योग साधना के माध्यम से व्यक्ति विचारशून्यता की ओर बढ़ता है, जो वास्तविक शांति का स्वरूप है।
प्रत्यक्ष अनुभव और कल्पना: वास्तविकता की खोज
मानव चेतना और अनुभव के बारे में बात करते हुए, हम यह समझते हैं कि हमारा मन उसी वस्तु के बारे में सोच सकता है, जिसे वह पूरी तरह से जानता हो या जिससे बिलकुल अपरिचित हो। दो ही अवस्थाएँ होती हैं: एक, जिसमें हम किसी वस्तु या घटना का पूर्ण अनुभव कर चुके हुए होते हैं, और दूसरी अवस्था, जहाँ पर किसी वस्तु का बिना कोई अनुभव नहीं किए उसकी सिर्फ अवधारणा या मान्यता बनाना ।
जब हम किसी वस्तु या घटना का अनुभव कर चुके हुए होते हैं, तो उसे लेकर कल्पना या फैंटेसी की गुंजाइश कम हो जाती है। जैसे एक साधारण उदाहरण लें—केला। यदि आपने केले को खाया है और उसके स्वाद को अनुभव किया है, तो उसके स्वाद के बारे में बहुत काल्पनिक बातें करना संभव नहीं है। यह सत्य है कि उस सत्य स्वाद-अनुभव को पूर्ण रूप से शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है । उसे शब्दों में जितना अधिक व्यक्त करने का प्रयत्न किया जाएगा उतना ही असत्य भाषण होता जाएगा । क्योंकि स्वाद के अनुभव को तो मात्र कुछ शब्दों में व्यक्त करने से ही चल जाएगा ।
इसके दूसरे पक्ष से संबंधित बात कर लेते हैं - यदि किसी व्यक्ति ने उस फल के स्वाद का अनुभव किया ही नहीं, मात्र सुना हुआ है तो वह उस स्वाद की कल्पना ही तो करेगा ।
यहीं से एक गहरे दर्शन का आरंभ होता है—फैंटेसी व मनो काल्पनिक जगत का स्थान केवल वहीं होता है जहाँ साक्षात अनुभव की कमी होती है। जब तक किसी दृश्य व वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते तब तक मन उस दृश्य के बारे में वास्तविकता से कहीं दूर कहानियाँ ही गढ़ेगा । जैसे भूत प्रेत से संबंधित विषय की काल्पनिक कथाएँ । भूतों को किसी ने देखा नहीं होता है , बस कथाएँ इस बात पर चल रही होती हैं कि मेरे किसी दूर के रिश्तेदारों से उनकी भिड़ंत हो गई थी । किसी से भी पूंछ कि भूतों से वार्तालाप हुआ था तो वह कहता है कि अमुक व्यक्ति का हुआ था । उसका नहीं हुआ । फिर भी उसका भय उनके अंदर मौजूद है ।
कहने का मूल अर्थ है कि मन जैसे जैसे काल्पनिक अवस्थाएं गढ़ता जाता है वैसे वैसे और ही वास्तविकता से दूर होता जाता है । वह सिर्फ़ मन मस्तिष्क का एक खेल मात्र रह जाता है । किंतु इसके उलट कोई वस्तु नजदीक रहती है है तो उसे अनुभव करना आसान हो जाता है । और जैसे ही अनुभव प्रारंभ होता है वैसे ही वैसे ही मन के काल्पनिक पक्ष का समापन हो जाता है । मन व्यावहारिक अनुभव में व्यस्त हो जाता है । विचारों में रुकाव आ जाता है ।
एक अन्य संदर्भ में इसे और समझने का प्रयास कर सकते हैं । जैसे देह की बात करें—यदि किसी ने स्वयं के देह, मन और इन्द्रियों की प्रक्रियाओं को बहुत गहराई से अनुभव किया है, तो उनसे संबंधित किसी अनावश्यक कल्पना या फैंटेसी की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है । आप शरीर, इन्द्रियों और मनोजगत के भीतर के हर अनुभव को प्रत्यक्ष महसूस कर रहे होते हैं । संतुष्टि का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से आंतरिक है, इसलिए कल्पना की कोई गुंजाइश नहीं बचती।
परंतु जब देह के अनुभव में कमी होती है—जब बाहरी दुनिया में हमारी भागीदारी अधिक और भीतर की अनुभूति कम होती है—तो देह को लेकर कल्पना व फैंटेसी प्रबल हो जाती है। यह मानव मन के स्वभाव का एक सत्य पक्ष है कि जिस वस्तु से जितना वह अपरिचित होता है उतना ही उस वस्तु से भयभीत होता हैं ।
जैसे, 99 प्रतिशत लोग मेडिकल चेकअप से सिर्फ इसलिए भयग्रस्त होते हैं क्योंकि उन्हें कहीं किसी रोग के होने का ज्ञान न हो जाये ।
अब यहाँ पर योग साधना की महत्ता दिखती है । इस साधना में प्रत्यक्ष अनुभव पर अधिक जोड़ दिया गया । यहाँ तक कि सबसे बड़ा प्रत्यक्ष वह स्वयं ही है जो उसकी आत्मा है । मैं कहता हूँ कि प्रत्यक्ष को आधार बनाकर ही तो योग चलता है । इससे वृहद अनुभव भला अन्य किसी का नहीं ।
स्वयं के भीतर गहराई से उतरना, अपने अस्तित्व को, अपने शरीर और मन को अनुभव करना। जितना स्वयं को समझते जाते हैं, उतनी ही काल्पनिक जगत की सकता समाप्त होने लगती है ।और साथ साथ विचारों की आवश्यकता अनुभव को प्रकट करने की ही रह जाती है । ध्यान दें विचार केवल तब तक अस्तित्व में रहते हैं जब तक अनुभव की कमी होती है। एक बार जब अनुभव हो जाता है, तो विचार स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि योग साधना के माध्यम से व्यक्ति विचारशून्यता की ओर बढ़ता है, जो वास्तविक शांति का स्वरूप है।
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