छात्र: हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा है जिसमें हर सांस को अपनी आखिरी सांस की तरह सोचने का सुझाव दिया गया है । यह सोच दिलचस्प लगा, किंतु इस अभ्यास की प्रभावशीलता के बारे में पूर्णतः यकीन नहीं हुआ । आप इसके बारे में क्या सोचते हैं?
योगी अनूप: हर सांस को अपनी आखिरी सांस की तरह सोचना अक्सर कई गुरुओं द्वारा सुझाया जाता है । वह इसलिए कि व्यक्ति किसी भी व्यक्ति से कोई ग़लत कार्य करे । किसी से कोई ग़लत व्यवहार ना करे । उन्हें ऐसा लगता रहा होगा कि इस सोच से साधक वर्तमान क्षण में जीने का अभ्यस्त हो जाएगा । यद्यपि, मेरे अनुभव के अनुसार, यह विधि प्राणायाम के गहराई तक पहुंचने या रोगमुक्त होने में सफलता नहीं दे सकती है ।
छात्र: ऐसा क्यों लगता है, आपकी राय में?
योगी अनूप: वर्तमान में पूर्णता से रहने पर मनन करने की क्षमता अल्पकालिक के लिए रुक जाती है ,। उसमें सोचने व कल्पना करने की प्रक्रिया तब तक नहीं चलेगी जब तक वर्तमान में लिप्त रहता ।
वर्तमान में लिप्त रहने पर समस्त कर्मेन्द्रियाँ , ज्ञानेंद्रियाँ और मन अनुभव में संलिप्त रहता है । उस समय अनुभव में संलिप्तता के कारण उनमें तनाव नहीं रहता है । किंतु जब व्यक्ति स्वप्न देख रहा होता है तब सिर्फ़ मन ही कार्य कर रहा होता है , अन्य समस्त इंद्रियाँ पूर्ण सक्रिय और सजग नहीं होती हैं ।
यदि कोई भी व्यक्ति प्राणायाम करते हुए उसके अनुभव की गहराई में जाने के बजाय उसके बारे में कुछ और सोच रहा है तो इसका अर्थ है गहराई में नहीं जा रहा है । कभी कभी किसी गुरु के द्वारा प्राणायाम करते समय साँसों में रंग की कल्पना करने की सलाह दी जाती है । बजाय कि साँसों को अनुभव करने के उसमें रंग की कल्पना करना अतार्किक है । इसका सीधा सा अर्थ है कि जिस कार्य में जुड़े हो उसका वास्तविक अनुभव करने के बजाय मन को किसी काल्पनिक अनुभव से जोड़ दिया गया ।
छात्र: क्या आप इसके बारे में कुछ और उदाहरण दे सकते हैं?
योगी अनूप: जरूर । कभी-कभी जब हम स्वादिष्ट भोजन कर रहे होते हैं, तो कुछ क्षणों के लिए हमारे कान बंद हो उस समय के लिये, अर्थात भोजन करने के उस वर्तमान क्षण में दूसरों की बातें हमें नहीं सुनाई नहीं देती हैं । इसका अर्थ है कि जब भोजन के स्वाद का आनंद लेते हैं, तो कुछ क्षण के लिए हमारे दिमाग में सुनाई देने वाली आवाजें ध्यान नहीं दे पाती हैं। उसी समय, भोजन के स्वाद के पूर्ण अनुभव की स्थिति में, मन की काल्पनिक स्थितियाँ विलीन हो जाती है। भोजन के स्वाद के पूर्ण अनुभव में मन में कल्पना व विचार करने की प्रक्रिया पर विराम लग जाता है ।
छात्र: यह समझ में आ गया . अब आपकी सलाह क्या है ?
योगी अनूप: प्राणायाम का अर्थ केवल साँस लेने, छोड़ने और रोकने से नहीं है । यह एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें मन को गहराई में अनुभव करवाने का प्रयास किया जाता है । ज्ञान योग में, इन रहस्यों को समझाने का प्रयास किया जाता है, जिसके माध्यम से प्राणायाम के द्वारा अपने मन को शांत और स्थिर किया जा सकता है, और साथ ही अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार भी लाया सकता है ।
छात्र: मन को प्राणायाम के माध्यम से कैसे शांत और स्थिर किया जा सकता है?
योगी अनूप: मेरे व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार, मन को शांत और स्थिर करने के दो ही तरीके हैं -
1- एक है किसी वस्तु के अनुभव में मन को लिप्त करवाना,
2- और दूसरा है कि उस वस्तु के माध्यम से स्वयं का अनुभव करना ।
जैसे भोजन करते समय व्यक्ति जब वह भोजन के स्वाद के अनुभव में डूबा हुआ होता है, तो उस समय मन अन्य विचारों और कल्पनाओं को करना बंद कर देता है ।
उसी तरह, जब एक अभ्यासी अपने स्वयं को अनुभव करना शुरू करता है, तो उस समय मन स्वाभाविक रूप से अन्य वस्तुओं व घटनाओं की कल्पना करना पसंद नहीं करता है । क्योंकि उस समय मन संतुष्टि की चरम अवस्था में रहता है तब वह अन्य विषयों को पकड़ना नहीं चाहता है ।
छात्र: बहुत दिलचस्प है । अंततः सांस छोड़ते समय अभ्यासी को करना क्या चाहिए?
योगी अनूप: साँसों को बाहर करते समय अनुभव साँसों के निकालने पार और साथ साथ उसके निकालने से शरीर और इंद्रियों पर क्या क्या प्रतिक्रिया हो रही है । अर्थात् छोड़ने व ढीला करने को अनुभव करना है क्योंकि उस समय शरीर और इंद्रियाँ ढीली ही हो रही होती हैं । ध्यान दें ढीले होने की कल्पना नहीं करना है । साँसों को छोड़ते समय जो जो अंग ढीले हो रहे हैं उसे अनुभव करना है ।
ध्यान दें प्राणायाम में साँसों के बाहर निकालने का अनुभव करने पर मन और शरीर स्वतः ही दोषों को बाहर निकालने की क्रिया कर रहा होता है । किंतु उसके बारे में कल्पना नहीं करना होता है ।
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