वाह्य प्रकृति से जुड़ने मात्र से रोगों को समाप्त नहीं किया जा सकता !
प्रकृति से हमारा बहुत गहन सम्बन्ध है , किंतु किस प्रकृति से , वो जो बाहर दिख रही है , वो जो समुद्र दिख रहा है , वो जो आसमान दिख रहा है । उससे या जो शरीर के अंदर प्रकृति मौजूद है उससे । आख़िर किससे हम अधिक नज़दीक और कनेक्टेड हैं । आसमान , जंगल , समुंदर को हम सिर्फ़ आँखों से देखते हैं , और आँखो से देखकर उसको अंदर अनुभव करने की कोशिश करते हो जबकि उसका वास्तविक अनुभव आँखों से देखकर नहीं किया जा सकता है किंतु कभी ये सोचा कि ये भला क्यूँ अच्छा लगता है ।
बस यही कि ये प्रकृति है । जब भी मानसिक रूप से परेशान होते हैं तो समुद्र के किनारे जाकर उसको देखते हैं । और थोड़ा शांत हो जाते हैं ।
पर इसके पीछे सत्य कुछ और ही छिपा है ।
तुम्हारी अंतरात्मा , तुम्हारा मन मस्तिष्क ये बताने की कोशिश कर रहा है कि इसको अनुभव, करो । पर क्या आँखों से देखने मात्र से अनुभव कर लोगे । यदि इस महामानव में इतना बड़ा गुण होता तो शादी वग़ैरह करने की क्या ज़रूरत थी , बस लड़का लड़की को आँखो से देख कर संतुष्ट हो जाएगा , उससे मिलकर सम्बंध क्यूँ बनाएगा । बस आँखोंसे देखकर शांत हो जाएगा । जब आप किसी को देखते हो और उसके आकर्षण में आपके अंदर कौतुहलता आती है तो आप उससे मिलने के लिए परेशान हो जाते हैं , और अंत में आप का अपनों से मिलना मजबूरी हो जाती है । अर्थात् आप देखने के बाद आप मिलते हैं तब आपकी इक्षा पूरी होती ।
मुझसे बताओ कि उस पानी को, आसमान को रोज़ देखते हो , बस देखते ही हो मिलते कभी नहीं । आपका मस्तिष्क उससे मिलने के लिए आपको मजबूर करने की कोशिश करता है किंतु आप हैं कि समुद्र के पानी को दूर से देखकर अपनी सेल्फ़ made फ़ैंटसी कर के शांत हो जाते हैं । और उस 70 फ़ीसदी पानी वाले शरीर में जो पानी भरा है उसका अनुभव होता ही नहीं , उससे आप कभी ख़ुश होते ही नहीं हैं , उसमें जो पानी भरा है , उसको कभी अनुभव किया क्या !
अरे महा मानव , अपने को बुद्धिमान समझने वाले मानव उस को सिर्फ़ आँखों से देखते हो , यहाँ पर जो 70 फ़ीसदी पानी से भरा ये घड़ा है , ये शरीर है , जिसको आप हर दिन ढोते हो , आप उसका भरपूर अनुभव कर सकते थे । पर कभी अनुभव नहीं किया ।
इस मस्तिष्क के अंदर ख़ाली आसमान कितना भरा है , किंतु आपको ये सिर विचारणीय भारी लगता है और आप इससे बचने के लिए बाहर आसमान की तरफ़ देखते हैं । ये सिर विचारों के बोझ से परेशान होते हुए आपको ये बताने की कोशिश कर रहा है कि इसके अंदर आसमान को अनुभव करो पर आप हैं कि बाहर के आसमान की तरफ़ आँखे गड़ाए हैं ।
अंदर आसमान को अनुभव करने के बजाय ऊपर वाले आसमान पर आँखों को टिकाए हो , आप तो आसमान में चिड़ियों को देखकर खुश होना अधिक पसंद करते हो । अरे आपकी अंतरात्मा तो आपको ये बता रही है कि अपने विचारों के मध्य आसमान अर्थात् ख़ाली जगह को अनुभव करो , वही आपका आसमान है , उसको छोड़कर आप ऊपर वाले आसमान में जा कर अटक गए हैं । और इस ऊपर वाले आसमान को आँखों से देखकर कविता बाज़ी करते हैं ।
ये सब कवियों का कार्य है साधकों का नहीं , साधक देखता नहीं , साधक अनुभव करता है । एक साधक को जुड़ने से ही सत्य का अनुभव होता है । जब तक वो जुड़ता नहीं उसे सत्य का अनुभव नहीं हो सकता है , और बिना सत्य का अनुभव किए बिना किसी का त्याग सम्भव नहीं । इसलिए साधक विचारों को त्यागने की कला समझ जाता है ।
एक सामान्य मनुष्य न तो प्रकृति से जुड़ना जानता है और ही छोड़ना । उसे बस आँखों से देखकर थोड़ा बहुत ख़ुशी हो जाती है ।
थोड़ा गम्भीरता से सोचो कि ये सभी प्रकृति जो जो इतनी सुंदर है उसको आप देखकर कितना खुश और आनंदित होते हो और यदि अपने इस शरीर के अंदर जो पाँचों प्रकृति बैठी है उसको अनुभव कर लेते तो गम्भीर से गम्भीर समस्या का समाधान कर सकते थे ।
इसमें योग प्राणायाम ज्ञान ध्यान ये सभी सहयोगी होंगे ।यहाँ तक कि आपकी की पूरे दिन का दैनिक कार्य ।
अंत में एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूँगा ।
एक अच्छे प्राणायाम में आपको क्या अनुभव करना होता है - आर्द्रता अर्थात् पानी , वायु और आसमान । प्राणायाम के अभ्यासी को इन तीनों का पूर्ण अनुभव करना होता है । जब वह इन तीनो का पूर्ण अनुभव करता हैं (देखता नहीं) तब वह मस्तिष्क और शरीर की भूख को तृप्त करता हैं और होने वाले अनेको रोगों को समाप्त करता है ।
अंत में , बजाय देखने के अनुभव पर ज़ोर दो वही शारीरिक मानसिक रोगों से बचाते हुए जीवन को आनंदित करेगा ।
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