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प्रार्थना; स्वयं का स्वयं से संवाद

5 months ago By Yogi Anoop

प्रार्थना का मूल अर्थ – स्वयं को स्वयं के द्वारा संतुष्ट करना 


प्रार्थना, एक ऐसा शब्द है जिसका उल्लेख होते ही हम ईश्वर, किसी उच्च शक्ति या देवताओं का स्मरण करते हैं। लेकिन इसका असली अर्थ क्या है? जब हम प्रार्थना करते हैं, तो क्या वास्तव में हम किसी बाहरी शक्ति से संवाद कर रहे होते हैं, या यह संवाद कहीं और नहीं बल्कि स्वयं के द्वारा स्वयं से ही हो रहा होता है ।  प्रार्थना का मूल सार यही है कि यह स्वयं से स्वयं की बातें करने का एक तरीका है। स्वयं को ही जिसे हमने कमजोर और लाचार समझ रखा है , दूसरी तरफ़ स्वयं को ही उच्चस्तर शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं । उसे यह ज्ञात नहीं होता है कि वह दूसरे पक्ष में भी खड़ा हुआ है । यद्यपि यह सिर्फ़ विचारों का खेल मात्र है । 

 

प्रार्थना का उद्देश्य

मेरे अनुभव में प्रार्थना का उद्देश्य ईश्वर को कोई जानकारी देना नहीं है, बल्कि स्वयं को स्वयं के दूसरे पक्ष जो बहुत शांत और तरल है उससे पारित करवाना । यदि परमा सत्ता सर्वज्ञ है तो उस तक बात पहुँचाने का अर्थ क्या । वह तो सर्वज्ञ है ही । वह तो हमसे पहले ही हमारी हर भावना, हर विचार, हर संघर्ष से परिचित है। तो फिर प्रार्थना किस लिए?

प्रार्थना इसलिए है क्योंकि जब परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं रहती तो उस समय हमें किसी ऐसी सत्ता का का सहारा चाहिए जो शांति और दिलासा दे सके । चुकी परिस्थितियां प्रतिकूल होने से हम स्वयं को कमजोर अनुभव कर रहे होते हैं । ऐसी अवस्था में प्रार्थना अर्थात् स्वयं के द्वारा स्वयं के दूसरे शांत और उत्तम पक्ष को जागृत कर देना ।  यह वह क्षण है जब हम स्वयं से बातें करते हैं, जब हम अपने भीतर चल रहे विचारों और भावनाओं को एक दिशा देने का प्रयास करते हैं। यह हमारे मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

चूँकि प्रतिकूल अवस्था में विचारों का प्रवाह इतना अधिक तीव्र होता है कि उससे बचने के लिए के लिए प्रार्थना वाला विचार जिसमें हम स्वयं को स्वयं के द्वारा ही अप्रत्यक्ष रूप से समझा बुझा कर शांत करने का प्रयत्न करते हैं । ध्यान दें उस विकट परिस्थिति से बचाव हो जाता है । 


स्वयं से संवाद – आत्मा की हीलिंग

जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम यह महसूस नहीं करते कि हम वास्तव में स्वयं के द्वारा स्वयं से ही बातें कर रहे होते हैं। हम अपनी आत्मा के उन हिस्सों से संवाद कर रहे होते हैं जो अक्सर दबे रह जाते हैं। प्रार्थना के माध्यम से, हम अपनी आत्मा को हील करने का प्रयास करते हैं। यह एक प्रकार की आत्म-स्वीकृति है, जहाँ हम अपने भीतर के संघर्ष, चिंताएँ, और अव्यक्त भावनाएँ सामने लाते हैं।


प्रार्थना, किसी और से मदद माँगने का माध्यम नहीं है। यह स्वयं की आत्मा से जुड़ने का एक ऐसा मार्ग है जिसमें बहुत हल्कापन महसूस होता है । जब हम ईश्वर के सामने अपनी पोल-पट्टी खोलते हैं, तो वास्तव में हम अपने समक्ष ही कर रहे होते हैं । अपनी आत्मा को पहचानने का प्रयास कर रहे होते हैं। यह उस ज्ञानात्मक अवस्था को पहचानने का माध्यम है जो हमारे भीतर विद्यमान है।


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