शिष्य: योगीजी, प्रार्थना का मतलब तो हम हमेशा से यही समझते आए हैं कि यह ईश्वर से कुछ माँगने का माध्यम है। लेकिन आपके दृष्टिकोण से प्रार्थना का असली अर्थ क्या है?
योगी अनूप: मेरे अनुभव में प्रार्थना का असली अर्थ, बाहरी शक्ति से कुछ माँगने में नहीं है। यह स्वयं से स्वयं का संवाद है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हमारा स्वयं का ही एक कमजोर और असहाय पक्ष जो वाह्य समस्याओं से कमजोर अनुभव कर रहा होता है, हमारे दूसरे उच्चतर शुद्ध आत्म पक्ष से सहायता की याचना कर रहा होता है । भीतर की उस उच्चतम चेतन आत्मा जो वही है, वह अपने कमजोर पक्ष को शांत करवाता है ।
सामान्य जान को ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी वाह्य परम सत्ता से याचना कर रहा है किंतु सत्य यह है कि वह स्वयं से स्वयं की याचना करता है । वह स्वयं के अंतरतम पक्ष को ही संबोधित करता है , सूक्ष्म रूप से वह स्वयं को ही जागृत करने का प्रयत्न करता है । इसीलिए प्रार्थना करने के बाद व्यक्ति को शांति और स्थिरता का बोध होने लगता है । यह भी सत्य है कि सामान्य जनों में ऐसा भ्रम होता है कि वह किसी वाह्य सत्ता से प्रार्थना कर रहा है ।
सामान्य जन को ऐसा भ्रम होता है कि वह मन में चित्रित परम सत्ता से जुड़ रहा है किंतु वह सवाया की ही परम सत्ता से जुड़ता है । मेरे अनुसार वाह्य जगत में ऐसी कोई सर्वज्ञ सत्ता माही है जो भावनाओं को सुनकर इक्षाओं की पूर्ति करती हो । यदि ऐसा ही है तो मनुष्यों को अपनी भावनाओं व दुखों को उसे कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है। वह तो पहले से ही हमारे हर विचार, भावना, और संघर्ष को जानती है।
मेरे ध्यानानुभव में प्रार्थना का उद्देश्य ईश्वर को कुछ जानकारी देना नहीं है, बल्कि यह स्वयं के भीतर छिपी उस शांत, स्थिर शक्ति से जुड़ने का एक साधन है। भावनाओं में जीने वालों के लिए यह साधन सर्वोत्तम दिखता है , क्योंकि भावनाओं के माध्यम से वह स्वयं को ही संतुष्ट करता है ।
शिष्य: लेकिन गुरुजी, जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं, तब हम अक्सर किसी बाहरी शक्ति का सहारा ढूँढ़ते हैं। क्या यह स्वाभाविक नहीं है?
योगी अनूप: हाँ, यह स्वाभाविक है। जब जीवन की परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि कोई और हमारी सहायता करे। परंतु असल में, वह सहारा भी हमारे भीतर ही है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम अपने भीतर के उत्तम, शांत और सशक्त पक्ष को जागृत करने का प्रयास करते हैं। यह वही क्षण होता है जब हम स्वयं से अप्रत्यक्ष रूप में संवाद करते हैं किंतु हमें यह भ्रम होता है कि किसी वाह्य सर्वज्ञ सत्ता से संवाद कर रहे हैं । कुछ भी चाहे भ्रम हो अथवा सत्य का अनुभव हो , इन दोनों पक्षों में आत्मा शक्ति के विकास की पूरी संभावना होती ही है । ध्यान दें प्रतिकूल परिस्थिति में अंतरतम के जागृत होने की बहुत अधिक संभावनाएं रहती है । वह इसलिए कि गंभीर परिस्थिति में मन की एकाग्रता चरम पर होती है ।
शिष्य: क्या इसका मतलब यह है कि प्रार्थना हमारी आत्मा को भी हील करती है?
योगी अनूप: बिल्कुल सही। प्रार्थना आत्मा की हीलिंग का एक माध्यम है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम अपनी आत्मा के उन हिस्सों से संवाद करते हैं जो अक्सर अनसुने रह जाते हैं। यह मनुष्य अपने अंदर दो पक्ष ko निर्मित करके ही जीवन यापन करता है । एक पक्ष जो उसका वाह्य पक्ष होता जिसे हम कमजोर और अज्ञानता का पक्ष कह सकते हैं और दूसरा पक्ष उसके अंतरतम का पक्ष है जो बहुत शुद्ध और स्थिर होता है । कमजोर पाश सशक्त पक्ष से आशा करता है , संवाद करता है । और उस संवाद में जैसे जैसे गंभीरता बढ़ती जाती अही वैसे वैसे उसमें ज्ञान जागृत होता जाता है ।
शिष्य: लेकिन गुरुजी, यह सब सुनने के बाद ऐसा लग रहा है कि प्रार्थना तो ईश्वर के सामने अपनी पोल-पट्टी खोलने जैसा है। क्या यह सही समझा मैंने?
योगी अनूप: सत्य तो यह है कि जब हम ईश्वर के सामने अपनी भावनाएँ प्रकट कर रहे होते हैं, तो वास्तव में हम अपने ही अंतरतम के सामने इन्हें स्वीकार कर रहे होते हैं। यह प्रक्रिया स्वयं (आत्मा) से जुड़ने का एक साधन है। प्रार्थना के माध्यम से हम अपने भीतर के ज्ञान, शक्ति और शांति को पहचानते हैं। यह स्वयं को स्वीकारने और समझने का सबसे सरल और सशक्त और भक्तिवादी मार्ग है। यह भी सत्य है कि प्रारंभ में प्रार्थना करते समय मन में किसी वाह्य सर्वज्ञ शक्ति के चित्र से याचना करता है किंतु धीरे धीरे गंभीरता बढ़ने पर उसे यह ज्ञात हो जाता है कि उसकी यात्रा स्वयं से स्वयं तक की ही है ।
शिष्य: तो प्रार्थना का सार यही है कि हम अपने भीतर की शक्ति को जागृत करें, है न?
योगी अनूप: इसे कुछ इस प्रकार से कह सकते हो कि प्रार्थना का मूल अर्थ है, स्वयं का स्वयं से मिलन । स्वयं को स्वयं के द्वारा ही संतुष्ट हो जाना । यह वह प्रक्रिया है जिसमें हम अपने भीतर के शांत और स्थिर पक्ष से जुड़ते हैं और उसे जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्रिय करते हैं। यही प्रार्थना का असली सार है। ध्यान दें जीवन में व्यावहारिक पक्ष में अशांति और अस्थिरता है और आध्यात्मिक पक्ष में पूर्ण स्थिरता है । इन्ही दोनों के मिलन प्रार्थना के द्वारा किया जाता है । सत्य तो यह है कि यही भक्ति मार्ग भी है ।
शिष्य: योगीजी, प्रार्थना और ध्यान में क्या अंतर है? क्या दोनों का उद्देश्य एक ही है?
योगी अनूप: बहुत अच्छा सवाल है। ध्यान में ध्यान करने के पहले ही यह ज्ञात होता है कि विचारों के त्यागने से मैं को स्वयं का अनुभव होगा । किंतु प्रार्थना या भक्ति मार्ग में प्रार्थना करते समय प्रारंभ यह ज्ञान नहीं होता है कि वह स्वयं से ही संवाद कर रहा है । उसे ऐसा लगता है कि वह किसी वाह्य सत्ता से संवाद करके उसमें स्वयं का विलय कर देगा । किंतु भविष्य में उसमें एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें जिससे उसे यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव हो जाता है कि वह स्वयं के द्वारा स्वयं में ही स्वयं का विलय कर दिया ।
शिष्य: योगीजी, अगर हम अपने भीतर की शक्ति से जुड़ने के लिए प्रार्थना करते हैं, तो क्या ईश्वर का अस्तित्व केवल प्रतीकात्मक रह जाता है?
योगी अनूप: इसे कुछ इस प्रकार के उदाहरण से समझने का प्रयास करो । दर्पण देखते समय दर्पण में दिखने वाला व्यक्ति बहुत शक्तिशाली दिखता किंतु कुछ समय के बाद यह अनुभूति हो ही जाती है कि उस दर्पण में दिखने वाला वाले व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया व अक्रिया उसके स्वयं के ऊपर आश्रित है । उस पाल ही दर्पण जैसे वाह्य साधन का महत्व समाप्त हो जाता है ।
शिष्य: गुरुजी, कई बार लोग प्रार्थना करते हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि उनकी प्रार्थना का कोई उत्तर नहीं मिला। ऐसा क्यों होता है?
योगी अनूप: यह इसलिए होता है क्योंकि लोग प्रार्थना को माँगने का माध्यम समझते हैं। वे किसी बाहरी शक्ति से समस्या के समाधान की अपेक्षा करते हैं। लेकिन प्रार्थना का उद्देश्य समाधान के लिए अपने भीतर की शक्ति को जगाना है। जब आप यह समझ जाते हैं, तो हर प्रार्थना का उत्तर आपके भीतर ही मिलता है।
शिष्य: क्या नियमित प्रार्थना हमारे जीवन पर स्थायी प्रभाव डाल सकती है?
योगी अनूप: निस्संदेह। नियमित प्रार्थना आत्मा को शांति और स्थिरता प्रदान करती है। यह एक साधना है, जो आपको अपनी आंतरिक शक्ति से जोड़ती है। इससे जीवन की कठिनाइयों को देखने और उनका सामना करने का दृष्टिकोण बदल जाता है।
शिष्य: गुरुजी, क्या प्रार्थना के लिए कोई विशेष समय या स्थान होना चाहिए?
योगी अनूप: प्रार्थना के लिए विशेष समय या स्थान आवश्यक नहीं है। यह आपके मन और आत्मा का संवाद है, जो आप कहीं भी और कभी भी कर सकते हैं। लेकिन यदि आप इसे एक निश्चित समय और स्थान पर नियमित रूप से करते हैं, तो इसका प्रभाव अधिक गहरा हो सकता है।
शिष्य: योगीजी, क्या प्रार्थना केवल शब्दों में होनी चाहिए, या मौन प्रार्थना भी की जा सकती है?
योगी अनूप: प्रार्थना का मूल अर्थ तो संवाद ही है । किंतु संवाद करते करते व्यक्ति की प्रार्थना बंद हो जाती है । अर्थात् गहराई में जाकर वह पूर्ण मौन अनुभव करता है । यही प्रार्थना का चरम अनुभव है ।
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