किसी भी क्रिया के अभ्यास के पूर्व उस क्रिया के विज्ञान को समझना बहुत आवश्यक होता है । सामान्य बुद्धि के लोगों के द्वारा किसी भी कर्म को करने का आधार लाभ व हानि होता है । यहाँ तक कि बहुत सरे लोग सिर्फ़ लाभ को ध्यान में रखकर किसी भी क्रिया को अंधाधुंध करने लगते हैं । बिना गहराई से सोचे समझे ये क्रियायें भविष्य में लाभ के बजाय हानि अधिक देती हैं । क्योंकि न तो उसके विज्ञान के बारे में जाना गया और न ही उसको प्राप्त करने के ढंग के बारे में जाना गया और न ही उसके बुरे परिणामों के बारे में जाना गया ।
विशेषरूप से आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत में तो लाभ और भय को मूल आधार बनाकर अभ्यास में ही सारी शक्तियाँ झोंक दी जाती हैं । इस प्रकार से अंधेरे में तीर चलाते रहने को मैं पूर्ण रूप से अवैज्ञानिक मानता हूँ । यह शारीरिक तौर पर थका कर रोग तो देता ही है साथ मानसिक बीमारियाँ भी देकर चला जाता है । इसी को ध्यान में रखते हुए कि प्राणायाम में क्या क्या नहीं करना चाहिए, मैंने निम्नलिखित बिंदुओ पर ध्यान इंगित करवाया है ।
प्राणायाम का अभ्यास इसलिए कदापि नहीं होना चाहिए कि उम्र लम्बी हो व वजन कम हो । इस प्रकार के भावनाएँ मन में रखकर अभ्यास करने वालों में नियमितता और अनुशासन कभी नहीं रह पाता है ।
प्राणायाम का अभ्यास सिर्फ़ शरीर स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं करना चाहिए । इसका अभ्यास आध्यात्मिक होना चाहिए , शरीर स्वास्थ्य तो स्वतः ही प्राप्त हो जाता है ।
प्राणायाम के सूक्ष्म और व्यवहारपूर्ण अभ्यास में पसीने नहीं निकलना चाहिए । पसीने शरीर की माँसपेशियों की क्रियाओं में निकलता है, मानसिक क्रियाओं में पसीने के निकलने का अर्थ है कि आपकी विधि में दोष है । बहुत सारे लोग किसी एक स्थान पर मानसिक एकाग्रता बढ़ाते हैं तब स्वतः ही सिर से पसीने निकलने शुरू हो जाते हैं । इस अवस्था में यह समझ लेना चाहिए कि आपकी इंद्रियों और मन की एकाग्रता की विधि में दोष है , उसे किसी गुरु के संरक्षण में रह कर ठीक किया जाना चाहिए ।
ध्यान की गहराई में जाने के लिए आँखे और मुँह को खोलकर अभ्यास उचित नहीं है ।
अभ्यास करते समय कमर झुकी हुई और सहयोग लेकर बैठना नहीं चाहिए । किंतु रीढ़ व शरीर को बहुत टाइट करके भी नहीं बैठना चाहिए । प्राणायाम के प्रारम्भ में रीढ़ के अंदर दर्द तो होना स्वाभाविक है किंतु अभ्यास के अंत तक शरीर और इंद्रियाँ ढीली और शांत हो जाना चाहिए ।
साँसों में तीव्र गति पैदा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि साँसों की तीव्रता से इंद्रियाँ तनाव में आ जाती हैं । साँसों में वही गति अच्छी है जिससे इंद्रियों में ढीलापन शुरू हो जाए और विचार कम होने प्रारम्भ हो जाएँ ।
ये समझ लें कि प्राणायाम के माध्यम से फेफड़े को पहलवान नहीं बनाना है , पसीने नहीं निकालना है । इसके माध्यम से जीवन के रहस्य को समझने का प्रयत्न कर रहें हैं । जितना आप समझते जाते हैं उतना ही आत्म संतुष्ट होते जाते हैं , और साथ साथ आपके के सभी अंग प्रत्यंग आपको रोग देकर दुखी नहीं करते ।
प्राणायाम के अभ्यास से भविष्य में क्या मिलेगा इस पर ध्यान ना दें । अभ्यास करते समय क्या क्या अनुभव हो रहा है इस पर ध्यान देना चाहिए ।
प्राणायाम का अभ्यास करते समय कल्पना के माध्यम से लाभ के बारे में न सोचें । ऐसी कल्पनाएँ नहीं करें कि शक्ति पूरी देह में फैली जा रही है । अनुभव पर ज़ोर दें । अभ्यास के समय क्या क्या अनुभव हो रहा है उस पर ध्यान दें ।
एक कलाकार कल्पना के माध्यम से मन में सुख और दुःख को उत्पन्न करता है । किंतु एक व्यावहारिक व्यक्ति कल्पना से अनुभव नहीं करता है , वह तो व्यवहार में जो घट रहा है उसी को अनुभव करता है । उसी से शक्ति को बढ़ाता है । इसी तरह प्राणायाम करते समय साँसों के अनुभव पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयास करें । इस अवस्था में कल्पनाएँ स्वतः ही समाप्त हो जानी चाहिए ।
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