बहुत सारे साधकों को यह अनुभव नहीं हो पाता है कि प्राणायाम के अभ्यास से क्या क्या अनुभव होना चाहिए । यद्यपि व्यावहारिक अनुभव की जगह उसके भ्रम को अधिक फैलाया गया । यहाँ पर कुछ ऐसे अनुभव दिए जा रहे हैं जो एक अभ्यासी को उसकी वास्तविकता तक पहुँचने में सफलता देगा ।
यदि प्राणायाम के अभ्यास से जीवन की सत्यता का अनुभव नहीं हो रहा है तो यह बात तो पक्की है जो भी अभ्यास कर रहे हो उसका लाभ मात्र देह तक ही होगा और वह भी क्षणिक मात्र ।
प्राणायाम करते करते अभ्यासी को उसके लय का अनुभव होना प्रारम्भ होना चाहिए । साँसों में लय का अर्थ है स्वयं को लय से युक्त करना । अंतरात्मा को लय से ही शांति मिलती है । इसीलिए साँसों में लय के माध्यम से वह स्वयं को शांत करता है ।
प्राणायाम से पाँचों इंद्रियों में शांति इतनी आनी चाहिए कि उन्हें कुछ घंटों तक विषयों के ग्रहण करने का मन नहीं करना चाहिए ।
प्राणायाम के अभ्यास में स्वयं की संतुष्टि पर ज़ोर होना चाहिए न कि शरीर के रोगों को ठीक करने के । संतुष्टि जितनी अधिकतर होती जाती है , सभी अंग प्रत्यंग अपना कार्य बखूबी से करते हैं ।
प्राणायाम करते समय साँसों का त्वचा के किस किस हिस्से में प्रभाव पड़ रहा है इसका अनुभव होना चाहिए । उस अनुभव से विचारो पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका भी अनुभव होना चाहिए ।
साँसों को अंदर और बाहर छोड़ते समय ग्रहण और त्याग की अनुभूति होनी चाहिए । साँसे अंदर जाती हुई यह अनुभव कराती हैं कि मन के स्वभाव में ग्रहण करना एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । नीर आराम से किसी भी आवश्यक वस्तु को ग्रहण करो । इसके आनंद को अनुभव करो ।
साँसे बाहर निकलते समय यह अनुभव करती हैं कि अर्थहीन वस्तुओं व विचारों को त्यागों उससे चिपके न रहो । उसके त्याग में आनंदित होवो । त्याग सुख देता है , निरोगी बनता है । इसका आभा करना चाहिए ।
जब साँसों को अंदर थोड़े समय के लिए स्वतः ही रोकते हैं , तब इसका अर्थ है कि उचित अनुसार संग्रह करना भी आवश्यक है, सुख के लिए साँसों का ही नहीं बल्कि वस्तुओं का भी संग्रह आवश्यक है । यह सुख देता है , यह स्थिरता देता । बिना संग्रह के जीवन चल नहीं सकता ।
जब साँसों को बाहर रोकते हो तब इसका अनुभव होना चाहिए कि भूखा भी रखना चाहिए । यदि प्राणायाम से इस जीवन दर्शन का अनुभव नहीं होता तो आप महा बेवक़ूफ़ हैं । बस साँसों का जानवरीय ढंग से अभ्यास कर रहे हैं ।
साँसों को शरीर में फैलाने का भ्रम त्यागें , इससे शारीरिक स्वास्थ्य नहीं मिलता । यदि इससे स्वास्थ्य मिलता तो मशीन के माध्यम से फेफड़े में साँसों को जबरन भर कर फैला दिया जाता । आपको इन साँसों के अनुभव पर ध्यान देना चाहिए , जिस क्षण आप संतुष्ट हुए अंग प्रत्यंग स्वतः ही स्वस्थ हो जाएँगे । जैसे भोजन की मात्रा चाहे जितना अधिक कर लें आप संतुष्ट नहीं हो सकते किंतु जिस क्षण आप स्वाद का अनुभव करते हैं आप संतुष्ट हो जाते हैं । खाने के बाद थोड़ा सा मीठा खाने मात्र से संतोष मिल जाता है । मैं तो कहता हूँ कि वह थोड़ा सा गुड़ पूरे खाने को नहीं पचा सकता, बल्कि वह स्वाद से मिलने वाली संतुष्टि ही भोजन को पचा देती है । वैसे ही साँसों की अनुभव करें और उस अनुभव से ही शरीर और मन स्वस्थ हो जाएगा । इसलिए साँसों को भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए ।
इसके अभ्यास में नाक के प्रारम्भ से लेकर गले तक और गले से लेकर नाक तक के अंदर के भाग के सूक्ष्म त्वचा का अनुभव होना चाहिए । यदि नहीं हो रहा है तो समझो गधे की तरह अभ्यास कर रहे हो । मनुष्य नहीं हो । मनुष्यों जैसी हरकतें करो ।
इन सभी ज्ञानेंद्रिय के चलायमान होने की वजह जल वायु और आकाश ही है , प्राणायाम के माध्यम से वायु को इस तरह अनुभव करो कि इंद्रियों के अंदर जो जल है उसमें हलचल न बढ़े और आकाश में शांत हो जाए । जल एवं वायु की वजह से आँखें इत्यादि इंद्रियों में movement होती है । यदि प्राणायाम से इन इंद्रियों का अनुभव न हुआ तो ये इंद्रिय शांत और स्थिर ना हो पाएँगी । फ़्रस्ट्रेशन के अतिरिक्त हाथ में कुछ नहीं आएगा ।
फेफड़ा तो एक मशीन मात्र है, उसको चलाने वाले आप हैं , जब आप उसको दिशा देते हैं , उसको ऊपर नीचे ले जाते हैं तो आप स्वयं को ट्रेनिंग देते हैं फेफड़े को नहीं । प्राणायाम में यही अनुभव करना होता है । उसी ट्रेनिंग से आप के अंदर गहन शांति बढ़ती है , और इस आत्म शांति से शरीर के समस्त सूक्ष्म अंग जो प्राण से संचालित होते हैं वे शांत अनुभव करने लगते हैं । स्वयं को पूर्ण संतुष करने के लिए फेफड़े का अभ्यास तो एक माध्यम मात्र है । इसे गहराई से समझें ।
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