प्राणायाम योग का एक अनिवार्य अंग है, जिसे प्राचीन शास्त्रों में प्राण-शक्ति को नियंत्रित करने की विधि बताया गया है। यह केवल श्वास लेने-छोड़ने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि मन, शरीर और चेतना को संतुलित करने का विज्ञान है। इसे करने से मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और शारीरिक ऊर्जा का संचार होता है। लेकिन जब यह अभ्यास थकान, अनिद्रा, सिरदर्द या रक्तचाप की अनियमितता जैसी समस्याओं का कारण बनने लगे, तो यह केवल एक शारीरिक प्रतिक्रिया नहीं होती—यह हमारे दृष्टिकोण और मानसिकता से भी जुड़ी होती है।
कई साधक प्राणायाम को एक तकनीक की तरह अपनाते हैं, लेकिन इसकी गहराई को नहीं समझते। वे इसे मात्र एक अभ्यास मानकर अधिक समय तक करने की कोशिश करते हैं और बिना उचित मार्गदर्शन के इसमें गहरे उतर जाते हैं। परिणामस्वरूप, वे अनजाने में शरीर की स्वाभाविक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप करने लगते हैं, जिससे असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। यदि प्राणायाम जीवन ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित करने की एक प्रक्रिया है, तो यह सवाल उठता है कि जब हम इसे करते हैं, तब असंतुलन क्यों पैदा होता है? क्या यह समस्या प्राणायाम की है, या हमारे अभ्यास करने के तरीके की?
श्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो शरीर और मस्तिष्क के बीच सामंजस्य बनाए रखती है। लेकिन जब कोई साधक अत्यधिक जागरूकता के साथ इसे नियंत्रित करने की कोशिश करता है, तो यह उसकी सहजता को बाधित कर देता है। कई साधक अनुभव करते हैं कि उनकी साँसें रुक रही हैं, वे श्वास नहीं ले पा रहे, या उन्हें घबराहट महसूस होती है। यह एक मानसिक भ्रम है, जिसे योग में ‘अति-जागरूकता’ की समस्या कहा जाता है। जब हम श्वास को ‘नियंत्रित’ करने की कोशिश करते हैं, तो हमारी चेतना उस पर अत्यधिक केंद्रित हो जाती है। यह केंद्रण कुछ समय बाद मनोवैज्ञानिक तनाव उत्पन्न करने लगता है। कुछ साधकों को ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी साँसें ‘बंद’ हो गई हैं, जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं होता। यह चेतना के एक बिंदु पर अत्यधिक केंद्रित हो जाने का प्रभाव है, जिससे मस्तिष्क असहज होने लगता है।
प्रश्न यह उठता है कि जब योग हमें श्वास के प्रति जागरूक बनने को कहता है, तो यही जागरूकता कभी-कभी तनाव का कारण क्यों बन जाती है? इसका उत्तर अभ्यास के संतुलन में छिपा है। यदि कोई व्यक्ति अचानक ही लंबी अवधि तक प्राणायाम करने लगे, बिना यह जाने कि उसका शरीर और मन इस प्रक्रिया के लिए तैयार हैं या नहीं, तो यह स्वाभाविक रूप से मानसिक अस्थिरता पैदा कर सकता है।
प्राणायाम शरीर के आंतरिक रसायनों को प्रभावित करता है। जब हम गहरी साँस लेते हैं, तो शरीर में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात बदलता है। यह परिवर्तन मस्तिष्क की न्यूरो-केमिस्ट्री को भी प्रभावित करता है। यदि कोई बिना ज्ञान के लंबे समय तक कुंभक (श्वास रोकने की क्रिया) करता है, तो रक्त में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बिगड़ सकता है, जिससे चक्कर आना, सिरदर्द, थकान और घबराहट जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। कई बार साधकों को लगता है कि वे हल्का महसूस कर रहे हैं, लेकिन यह हल्कापन कभी-कभी शरीर के ऑक्सीजन की कमी के कारण भी होता है।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि प्राणायाम का अभ्यास ‘अधिक करने’ से नहीं, बल्कि ‘सही ढंग से करने’ से लाभ देता है। केवल लंबी अवधि तक श्वास को रोकना या तीव्र गति से साँस लेना, बिना शरीर की प्रतिक्रिया को समझे, लाभ की बजाय हानि भी पहुँचा सकता है।
कई साधक प्राणायाम में अपनी उपलब्धि को लेकर अहंकार पालने लगते हैं। वे यह मानने लगते हैं कि वे अपनी श्वास पर पूर्ण नियंत्रण पा चुके हैं और दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ हैं। यही अहंकार धीरे-धीरे उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगता है। योग का मूल सिद्धांत ‘अहंकार-मुक्ति’ है, लेकिन जब साधक स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है, तो वह अपने ही मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करता है।
कई बार अहंकार के कारण व्यक्ति अपनी सीमाओं को नकारने लगता है। वह थकान, सिरदर्द, या अनिद्रा के संकेतों को नज़रअंदाज़ कर देता है, क्योंकि उसे लगता है कि वह ‘पूर्ण रूप से सक्षम’ है। लेकिन योग में सबसे बड़ी समझ यही है कि शरीर और मन की भाषा को सुना जाए। यदि कोई संकेत मिल रहा है कि कोई अभ्यास थका रहा है या बेचैनी उत्पन्न कर रहा है, तो इसका अर्थ है कि वहाँ असंतुलन आ रहा है, और इसे नज़रअंदाज़ करना आत्मवंचना होगी।
प्राणायाम का सही अभ्यास तभी संभव है जब इसे सहजता और संतुलन के साथ किया जाए। शारीरिक संकेतों को नज़रअंदाज़ करके केवल ‘अधिक’ करने की मानसिकता योग के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। योग के अभ्यास में गुरु का मार्गदर्शन भी अनिवार्य है। बिना गुरु के प्राणायाम करना वैसा ही है जैसे बिना दिशा के यात्रा करना। गुरु न केवल मार्ग दिखाते हैं, बल्कि वे साधक को यह भी समझाते हैं कि कब रुकना चाहिए और कब आगे बढ़ना चाहिए।
इसके अलावा, श्वास को सहज रूप से अपनाना भी आवश्यक है। जबरन नियंत्रण करने की प्रवृत्ति इसे बाधित कर देती है। योग का वास्तविक उद्देश्य श्वास को सहजता से अनुभव करना है, न कि इसे किसी उपलब्धि की तरह देखना।
प्राणायाम के दौरान उत्पन्न होने वाली समस्याएँ हमें याद दिलाती हैं कि योग केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार का मार्ग है। जब कोई व्यक्ति इसे अहंकार, उपलब्धि या जल्दबाजी से करता है, तो यही मार्ग विषमताओं का कारण बन जाता है। योग का अभ्यास तभी सफल होता है जब यह श्वास की तरह सहज हो। जब हम इसे सहजता से अपनाते हैं, तो यह ऊर्जा को प्रवाहित करता है, लेकिन जब हम इसे जबरदस्ती नियंत्रित करते हैं, तो यह तनाव उत्पन्न कर सकता है।
अतः सही मार्गदर्शन, संतुलन और आत्म-जागरूकता के बिना, योग केवल अभ्यास नहीं, बल्कि एक बोझ भी बन सकता है। यही कारण है कि योग को “करने” का नहीं, बल्कि “होने” का विज्ञान कहा गया है। जब साधक इसे इस दृष्टि से देखता है, तो प्राणायाम केवल श्वास नियंत्रण की विधि नहीं रह जाता, बल्कि एक आत्मिक अनुभव बन जाता है।
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