प्राणायाम का एक और दुष्प्रभाव: आवाज़ का उत्पन्न होना और उसका प्रभाव
प्राणायाम योग का एक अभिन्न अंग है, जो शरीर और मन को संतुलित करने का अद्भुत साधन हो सकता है। किंतु इसके अभ्यास में सावधानी न बरतने से गंभीर दुष्प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं। विशेष रूप से वात-पित्त प्रकृति के लोगों के लिए यह खतरा अधिक होता है। यदि प्राणायाम के दौरान साँसों में आवाज़ उत्पन्न होती है, तो यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। आइए इसे तार्किक रूप से समझें कि साँसों में आवाज़ क्यों नहीं होनी चाहिए और यह शरीर को कैसे प्रभावित करती है।
वात और पित्त प्रकृति के लोग स्वभाव से तेज़ी पसंद करते हैं। यह तेज़ी प्राणायाम में भी आती है, जिससे साँस लेने और छोड़ने में अनावश्यक बल लगता है और साँसों में आवाज़ उत्पन्न होती है। यह आवाज़ संकेत देती है कि श्वास प्रक्रिया स्वाभाविक नहीं रही। जब ऐसा होता है, तो शरीर पर कई प्रभाव पड़ते हैं, जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:
• नाक और गले में गर्मी का उत्पन्न होना: बलपूर्वक साँस लेने से नाक और गले की भीतरी सतह पर घर्षण होता है, जो गर्मी में बदल जाता है। यह गर्मी संवेदनशील अंगों जैसे नाक, आँखें, मुँह, कान, और मस्तिष्क में असंतुलन पैदा करती है। यदि यह गलती बार-बार दोहराई जाए, तो गर्मी स्थायी रूप ले सकती है। नाक के अंदर की नमी, जो साँसों को संतुलित करती है और मन को शांत रखती है, धीरे-धीरे कम हो जाती है। इससे साँस लेने में कठिनाई और बेचैनी बढ़ती है, जिसके कारण व्यक्ति प्राणायाम छोड़ सकता है या बड़ी समस्या का शिकार हो सकता है।
• आँखों और मस्तिष्क पर प्रभाव: नाक और गले की गर्मी आँखों तक पहुँचती है, जिससे सूखापन और जलन शुरू होती है। रोज़मर्रा के कामों में परेशानी होती है और दृष्टि कमजोर हो सकती है। यह गर्मी मस्तिष्क तक फैलकर मानसिक तनाव, चिड़चिड़ापन, और बेचैनी को बढ़ाती है। कई लोग क्रोधित हो जाते हैं या मानसिक अस्थिरता का अनुभव करते हैं। मुँह का सूखापन, लार का असंतुलन, और सिर में खिंचाव जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं, जो भोजन पचाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।
• कानों और साइनस पर असर: अत्यधिक बल से साँस लेने पर कानों में दबाव बनता है, जिससे कान बजने लगते हैं। यह स्थिति स्थायी होकर श्रवण शक्ति को नुकसान पहुँचा सकती है। साथ ही, साइनस क्षेत्र में सूखापन बढ़ता है, जिससे सिर में भारीपन और गर्मी का अनुभव होता है।
इन प्रभावों का परिणाम यह होता है कि शरीर में गर्मी बढ़ती है और व्यक्ति मानसिक व शारीरिक रूप से असंतुलित हो जाता है। डॉक्टर अक्सर इसे गैस्ट्रिक समस्या या मानसिक विकार समझकर दवाइयाँ देते हैं, जो मूल कारण को ठीक नहीं करतीं। कुछ मामलों में व्यक्ति को मनोरोग विशेषज्ञ के पास भेजा जाता है, जिससे उसकी परेशानी और बढ़ जाती है।
इसका समाधान सरल है। प्राणायाम में साँसों को प्राकृतिक और सहज रखें। साँस लेते और छोड़ते समय कोई आवाज़ न हो, इसके लिए धीरे-धीरे और शांत भाव से श्वास लें। यदि गर्मी बढ़ने का एहसास हो, तो तकनीक को धीमा करें। आँखों में जलन, मुँह में सूखापन, या कानों में दबाव महसूस होने पर तुरंत प्राणायाम रोककर विश्राम करें।
प्राणायाम एक सूक्ष्म और गहन अभ्यास है। गलत तरीके से करने पर, विशेष रूप से साँसों में आवाज़ उत्पन्न होने पर, यह गंभीर समस्याओं का कारण बन सकता है। वात-पित्त प्रकृति के लोगों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए कि वे इसे तेज़ी से न करें और आवाज़ से बचें। सही विधि से किया गया प्राणायाम ही शरीर और मन के लिए वरदान सिद्ध होता है।
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