“ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव: वस्तु से आत्मा तक का सफर”
ऑब्जेक्टिव का अर्थ और उसकी प्रकृति
ऑब्जेक्टिव का अर्थ मूल रूप से बाहरी वस्तु-आधारित अनुभव या भोग है। यह वह स्थिति है, जब आपकी चेतना और एकाग्रता किसी बाहरी वस्तु पर केंद्रित होती है, और आप उस वस्तु के अनुभव में पूरी तरह से लीन हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, जब आप भोजन कर रहे होते हैं, तो आपका पूरा ध्यान भोजन के स्वाद पर होता है। उस क्षण आप उस स्वाद को महसूस करने और उसमें डूब जाने के अलावा और कुछ नहीं सोचते।
इस प्रकार के अनुभव में, आपके भीतर चलने वाली वैचारिक प्रक्रिया रुक जाती है, क्योंकि आप पूरी तरह से उस वस्तु के अनुभव में खो जाते हैं। यह अनुभव आपको उस वस्तु का आनंद लेने का अवसर देता है, लेकिन यह बाहरी और सीमित है।
यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि वह व्यक्ति जो भोजन के स्वाद की गहराईं में ही नहीं जाता है उसे मैं ऑब्जेक्टिव होना नहीं कहता हूँ । यहाँ तक कि वह न तो ऑब्जेक्टिव है और न ही सब्जेक्टिव है । ऐसे लोगों की संख्या 99 फ़ीसदी से अधिक ही पायी जाती है ।
ऑब्जेक्टिव एकाग्रता के उदाहरण
ऑब्जेक्टिव एकाग्रता उन लोगों में आम होती है, जिनका ध्यान बाहरी वस्तुओं, कार्यों, या किसी विशिष्ट उद्देश्य पर केंद्रित रहता है:
• वैज्ञानिक: अपने प्रयोगों और अनुसंधानों में पूरी तरह लीन रहते हैं।
• योगी: साधना के दौरान बाहरी प्रक्रियाओं जैसे प्राणायाम या आसनों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
• कर्मयोगी: अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाते हैं।
• राजनेता: अपने कार्यों और जनता की समस्याओं को सुलझाने में समर्पित होते हैं।
ऑब्जेक्टिव अनुभव की सीमाएँ
ऑब्जेक्टिव अनुभव में मन और इंद्रियाँ बाहरी वस्तुओं से जुड़े रहते हैं। यह ध्यान और एकाग्रता का एक विशेष स्तर है, जो व्यक्ति को अपने कार्य में श्रेष्ठता प्रदान करता है।
लेकिन इसका एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यदि इस अनुभव के दौरान शरीर और मन में तनाव बना रहता है, तो यह अनुभव शांति देने के बजाय रोगों का कारण बन सकता है।
मेरे अनुभव में, ऑब्जेक्टिव का उद्देश्य यही है कि कर्म के दौरान व्यक्ति अपने कार्य को एक कला बना सके। जब कार्य में इंद्रियाँ ढीली और शांत होती हैं, तो कर्म से गहन शांति और संतुष्टि का अनुभव होता है।
ऑब्जेक्टिव से सब्जेक्टिव की यात्रा
जब एकाग्रता बाहरी वस्तुओं से होकर स्वयं के अनुभव तक पहुँचती है, तो यह सब्जेक्टिव बन जाती है। इसे इस तरह समझा जा सकता है:
• दर्पण का उदाहरण: जब आप दर्पण में देखते हैं, तो दर्पण एक बाहरी वस्तु (ऑब्जेक्ट) है। लेकिन आप उसमें अपने प्रतिबिंब को देख रहे होते हैं, दर्पण को नहीं। यदि दर्पण न होता, तो आप स्वयं को देख ही नहीं पाते।
इसी तरह, बाहरी वस्तुओं का अनुभव केवल माध्यम है, जो आपको अपने भीतर झाँकने और अपने अस्तित्व का अनुभव कराने में मदद करता है।
व्यवहारिक उदाहरण:
किसी भी कार्य को करते हुए, जब आप तनाव से मुक्त होते हैं और मन और इन्द्रियों के ढीलेपन होने का अनुभव करते हैं, तो आप ऑब्जेक्टिव अनुभव में होते हैं। ऑब्जेक्ट व जिस विषय पर आपका ध्यान केंद्रित है उसको बहुत अच्छी तरह से करते हुए स्वयं की इन्द्रियों को प्रसन्न करते है । इस कार्य प्रणाली में न तो सब्जेक्ट और न ही ऑब्जेक्ट की हानि होती है ।
किंतु जैसे ही आप कार्य के दौरान वस्तु या कर्म से परे स्वयं की शांति पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो यह अनुभव सब्जेक्टिव बन जाता है। यही वह अवस्था है, जहाँ आप अपने भीतर के सत्य और आत्मा को पहचानते हैं।
सब्जेक्टिव अनुभव और आत्म साक्षात्कार
सब्जेक्टिव अवस्था वह है, जिसमें आपकी चेतना बाहरी वस्तुओं के साथ जुड़ करके अनुभव करते हुए स्वयं पर ध्यान केंद्रित करने में कामयाब हो जाती है । इस कामयाबी में विषय से करता की प्राथमिकता हटकर स्वयं पर केंद्रित हो जाती है। यह आत्मा का साक्षात्कार है, जिसमें आप बाहरी वस्तु को केवल एक साधन बनाते हैं और अंततः अपने अस्तित्व के सत्य को अनुभव करते हैं।
सार:
• ऑब्जेक्टिव: बाहरी वस्तु पर आधारित अनुभव और एकाग्रता।
• सब्जेक्टिव: बाहरी वस्तु को माध्यम बनाकर स्वयं की चेतना और अस्तित्व का अनुभव।
दोनों अवस्थाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। ऑब्जेक्टिव अनुभव आपको बाहरी जगत का रस प्रदान करता है, जबकि सब्जेक्टिव अनुभव आपको आपके अस्तित्व का सत्य प्रदान करता है। लेकिन आध्यात्मिक प्रगति के लिए ऑब्जेक्टिव से सब्जेक्टिव की यात्रा करना आवश्यक है। यही यात्रा आत्म साक्षात्कार का मार्ग है।
“ऑब्जेक्टिव अनुभव हमें बाहरी जगत का रस देता है, लेकिन सब्जेक्टिव अनुभव हमें हमारे अस्तित्व का सत्य प्रदान करता है। दोनों के बीच संतुलन साधना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।”
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