महर्षि ने साधकों को साधना में नौ प्रकार के विघ्नों को बताया ।
“रोग, अकर्मण्यता, प्रमाद, आलस्य, वैराग्यहीनता, भ्रान्तिदर्शनम, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व । ये ही विघ्न है । इसके लक्षण निम्न प्रकार हैं”
1- व्याधि शरीर इन्द्रिय व मन में किसी प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाने पर साधक की साधना डगमगाने लगती है । इसलिये ये विघ्न है।
2- सत्यान : आलस्य के कारण साधना न करना ये सत्यान कहलाता है । सामान्य लोग इसी के कारण रोगी हो हो जाते हैं ।
3- संषयः जो साधना कर रहे हैं उसमें शंका बने रहना कि ये ठीक है या नहीं। इस प्रकार संषय से साधना में मन नहीं लगता है । और जो कुछ अभ्यास करता है उसमें निरंतरता नहीं हो पाती है ।
4- प्रमाद : लापरवाही से साधना करना बस खानापूर्ति के लिये करना लाभदायक नहीं हो सकता है ।
5- आलस्य : किसी के शरीर में तामसिकता अधिक होने के कारण किसी भी कार्य में अभ्यास नहीं कर पाता , और उसको अपने शरीर में भारीपन लगता है ।उसके कारण साधना में मन नहीं लगता है।
6 अविरति : संसार को भोगने की आदत से चित्त भोगी हो जाता है । उसमें वैराग्य का आभाव हो जाता है । यह साधना में सबसे बड़ी बाधा है ।
7- भ्रान्तिदर्शन : गलत को सही और सही को गलत समझना भ्रान्तिदर्शन कहलाता है ।इस भ्रांति से लगभग सभी पीड़ित होते हैं । पति कहता है कि मैं ही सत्य हूँ और पत्नी कहती है कि वो ग़लत नहीं । किसी में अपने अंदर देखने की क्षमता नहीं तभी तो सही को ग़लत और ग़लत को सही समझ रहे हैं ।
8- अलब्धभूमिकत्व : साधक को साधना मे अपनी इच्छा के अनुसार फल न मिलने पर उत्साह कम हो जाता है । इसी को अलब्धभूमिकत्व कहते हैं । साधक की समस्या है कि वो फल की ओर देख रहा , उसे ये समझाया जाता है कि कर्म जो कर रहा है वो फल से अलग है । यही उसकी सबसे बड़ी भ्रांति है । जिस दिन उसे ये समझ आ जाता है उसे साधन में साध्य जैसा अनुभूति होने लगती है ।
9- अनवस्थितत्व : मन का थोडी देर के लिये किसी विषय में ज्यादा देर तक न ठहर पाना उत्साहहीनता बढ़ाता है । इसको अनवस्थितत्व कहते हैं । किसी भी साधन में शांति नहीं मिलती कार्य करने का मन नहीं करता है । इसीलिए एक ऐसे गुरु से सम्बंध हमेशा बनाए रखना पड़ता है जो उत्साह बढ़ाने के लिए भिन्न भिन्न तरीक़े बताता रहे । थोड़ा मज़ाक़ भी करता रहे ।
ये नौ प्रकार के विघ्न हैं जो व्यक्ति के मार्ग में बाधक होता है ।इन सभी विध्नों के नाश के लिये एकाग्रता का विकास करना चाहिये । और एकाग्रता के विकास के लिये साधक को किसी एक पवित्र आलम्बन या किसी व्यावहारिक गुरु को लेकर उसका अभ्यास करना चाहिए। एकाग्रता से ढेर सारे छोटे-मोटे विध्न शांत हो जाते हैं । चूंकि एकाग्रता से मन की शक्ति बढ़ जाती है । मन की शक्ति के बढ़ने पर इच्छा शक्ति बढ़ जाती है । अर्थात जो विघ्न हैं उनका समापन हो जाता है। विघ्नों के निवारण से ही व्यावहारिक और पारमार्थिक जीवन बेहतर गुजारा जा सकता है ।
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