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नाभि व धरन का रहस्य

2 months ago By Yogi Anoop

नाभि व धरन का रहस्य 

छात्र: गुरुजी, नाभि और मानसिक स्वास्थ्य के बीच क्या संबंध है?

योगी अनूप: बहुत अच्छा प्रश्न! नाभि केवल हमारे शरीर का केंद्र नहीं है, बल्कि यह ऊर्जा संतुलन का भी महत्वपूर्ण स्रोत है। इसका संबंध न केवल शारीरिक स्वास्थ्य से है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।

नाभि: ऊर्जा का केंद्र

जैसे पांचों उंगलियों में अंगूठा एक प्रमुख आधार के रूप में है जो थोड़ा हथेली में वही एक ऐसा अंग है जो साइड में है और पकड़ने के लिए कार्य करता है । बिना अंगूठे के मनुष्यों में उसी प्रकार से कार्य करने की क्षमता होगी जैसे जानवरों के हाथों के द्वारा होती है । 

कुछ वैसे ही इस देह में नाभि को माना जा जा सकता है । नाभि को मैं एक स्तंभ के रूप में देखता हूँ ।  इसे आप ऊर्जा का स्रोत मान सकते हैं, जिसे सन (सूर्या) भी कहा जाता है। यह सूर्य की तरह ऊर्जा उत्पन्न करता है अर्थात् यह बिना किसी अंग के हुए भी एक ऐसा मूल स्थान है जो दृश्य में नहीं होने के बावजूद लिवर और आँतों की प्रेरणा का मूल स्रोत है ।  मेरे अनुभव में पाचन और निष्कासन के उचित ढंग से कार्य करने पर सबसे अधिक लाभ उसके मस्तिष्क में ही देखा जा सकता है । 

क्योंकि भोजन के उचित एवं संतुलित पाचन और निष्कासन से मस्तिष्क को पूर्ण पोषण और ऊर्जा प्राप्त होता रहता है । यदि मस्तिष्क को भौतिक पोषण प्राप्त होता रहे तो चिंतन की प्रक्रिया के माध्यम से मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान किया जा सकता है । 

मस्तिष्क और जल तत्व का प्रभाव

ध्यान दें पाचन की क्रिया अग्नि से प्रेरित है और चिंतन की प्रक्रिया जल और वायु से प्रेरित है । मस्तिष्क और इन्द्रियों में जल और वायु का पूर्ण प्रभाव होता है । और नाभि केंद्र और लिवर के क्षेत्र में अग्नि का । मेरे यौगिक प्रयत्न में इसी का संतुलन ही स्वास्थ्य दे सकता है । यहाँ यह समझना आवश्यक है , यहाँ पर यह भी ध्यान देना होगा कि जल के किससे में भी अग्नि तापमान के रूप में दिखता है । जैसे गर्म पानी में अग्नि का अप्रत्यक्ष रूप में विद्यमान है अर्थात तापमान है । इसी प्रकार पूरे देह में जो भी तरल पदार्थ अस्तित्व में है उसमें अग्नि तापमान के रूप में विद्यमान है । अन्यथा वह जल बर्फ के रूप में परिवर्तित हो सकता है और मृत्यु हो जाएगी । आंखें जल में तैर रही होती हैं। यदि आंखों में जल न हो, तो उनका कार्य कर पाना संभव ही नहीं हो सकता है । मुंह में यदि लार (जल) न हो, तो बोलना संभव नहीं होगा , भोजन कर पाना संभव नहीं होगा । इसी प्रकार मुँह से गले और पेट तक के हिस्सों में उसी जल की धारा मौजूद होती अहि जिससे भोजन की गति मुँह से प्रत तक ओत पेट से नीचे की ओर जाती है । 

ध्यान दें वायु गति का का प्रेरक है किंतु बिना जल के सरकने की प्रक्रिया इस देह में संभव ही नहीं हो सकता है । और इसके साथ साथ जीवन के लिए इस जल में तापमान का संतुलन न हो तो जीवन संभव न होगा । किंतु उस जल में एक संतुलित तापमान का होना आवश्यक होता है तभी जीवन संभव हो सकता है । जैसे रक्त को निकालने पर वह गर्म होता है , उसमें तापमान थोड़ा बढ़ा हुआ होता है । यदि उसके तापमान में आवश्यकता से कम अर्थात नीचे स्तर पर तापमान कर दिया जाए तो व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है । 

 इसलिए अग्नि (नाभि) एक महत्वपूर्ण तत्व है जो समस्त देह में उचित अनुसार तापमान को संतुलित किए रहता है  । परिणामस्वरूप मनुष्य में जीवन दिखता ही है । उसी में नाभि को कार्य बहुत महत्वपूर्ण रखता है । 

नाभि और ऊर्जा संतुलन

मैं नाभि को एक काइनेटिक एनर्जी (गतिज ऊर्जा) का केंद्र मानता हूँ । इस ऊर्जा के सुषुप्त रहने से पाचन और निष्कासन की प्रक्रिया में अच्छी खासी बाधा पहुँचती है । और यदि इस ऊर्जा को जो अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र में विद्यमान है,  उसे सक्रिय कर दिया जाये तो प्रत्यक्ष परिणाम देखे जा सकते हैं । जिसमें बहुत सारे रोगों को ठीक किया जा सकता है  । या यूँ कहिए किए बहुत सारे रोग स्वतः ही ठीक हो जाते हैं । 

योग की साधना में नाभि के क्षेत्र में संतुलन स्थापित होता है , कभी कभी या यूँ कहें कि बहुत अवैज्ञानिक रूप से योग व हठ योग की साधना में नाभि व गुरुत्वाकर्षण के केंद्र में असंतुलन अधिक बढ़ जाता है । और उस असंतुलन के कारण रोगों का जन्म होने लगता है जिसको कुछ लोग प्रारंभ के नाम से कहकर स्वयं के अंदर भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । किंतु वैज्ञानिक रूप से किया गया योग का अभ्यास नाभि केंद्र में गतिज ऊर्जा पैदा करने में पूर्ण समर्थ होता है । 

साथ साथ इसी के विपरीत ध्यान के अभ्यास अभ्यास में इस ऊष्मीय ऊर्जा को शांत करके अवशोषित किया जाता है । जैसे जैसे विचारों के प्रवाह में कमी आती जाती है वैसे वैसे ग्रंथियों में रसों की उत्पत्ति और उसके प्रवाह में संतुलन आता है साथ साथ रसायनों के प्रवाह में संतुलन स्थापित होता है जिससे नाभि तंत्र में स्थितिज ऊर्जा का अनुभव होना भी प्रारंभ होना शुरू हो जाता है । यही लिवर और आंतों की शक्ति को शक्ति में वृद्धि भी कर देता है । 

यह भी सत्य है पारंपरिक चिकित्सा में नाभि की मालिश और उसमें तेल डालने की भी विधाएँ प्रचलित हैं । यद्यपि किसी अनुभवी के संरक्षण में ही इन प्रक्रियाओं का उपयोग करना चाहिए अन्यथा इसके हानिकारक दुष्प्रभाव भी देखे जाते हैं । और वे अत्यंत ही खतरनाक होते हैं । 

गहरी नींद और नाभि की ऊर्जा

यहाँ पर यह भी समझना आवश्यक है कि गहन निद्रा के समय मन का मस्तिष्क के दोनों तंत्रों जिसमें तनाव और शिथिलता सम्मिलित है, संपर्क कुछ घंटों तक अस्थायी रूप से टूट जाता है । ध्यान दें शिथिलता के एक सीमा के बाद ही गहन निद्रा आती है और उस गहन निद्रा से जागृत अवस्था में आने के लिए इसी नाभि से निकालने वाली नदियों जो तनाव वाले हार्मोन्स का स्राव करती हैं , वे पैदा होने लगती हैं । और परिणामस्वरूप व्यक्ति की गहन निद्रा टूट कर जागृत अवस्था में आ जाती है । अन्यथा एक बार गहन निद्रा में जाने के बाद वह जागृत अवस्था में आना संभव नहीं हो सकता है । मैं इसी को सूर्य की दिशा कहता हूँ । सूर्य अपनी दिशा में चलते समय जागृत कर देता है । यह अपार ऊर्जा प्रदान करता है ।  

नाभि संतुलन के लिए योग और ध्यान

नाभि के संतुलन को बनाए रखने के लिए, मैं एक समग्र दृष्टिकोण (होलिस्टिक अप्रोच) अपनाने की सलाह देता हूँ, जिसमें—

1. योग, प्राणायाम और ध्यान का वैज्ञानिक अभ्यास । 

2. गहरी नींद (Deep Sleep) को सुधारना । 

2. कमर के हिस्से को बेहतर करना ताकि नाभि बार बार न कमजोर हो ।

3. वायु व गैस्ट्रिक पर नियंत्रण । डकार इत्यादि न होने देना । इसमें मानसिक शांति जिसमें स्थिरता हो ।

नाभि केवल शरीर का एक गुरुत्वाकर्षण केंद्र है जो संपूर्ण ऊर्जा संतुलन देने लगता है । यह पाचन तंत्र, रक्त संचार और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती है। सही योग, ध्यान और जीवनशैली अपनाकर नाभि को संतुलित रखा जाए, तो मानसिक शांति और ऊर्जा बनी रहती है।

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