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नाभि दोष और मानसिक भ्रम: योगी अनूप

1 month ago By Yogi Anoop

नाभि दोष और मानसिक भ्रम: योगी अनूप के शोध निष्कर्ष

योगी अनूप के शोध निष्कर्षों पर आधारित विश्लेषण

नाभि के टलने को लेकर समाज में अनेक भ्रांतियाँ प्रचलित हैं। कुछ इसे गंभीर शारीरिक विकार मानते हैं, तो कुछ इसे मात्र एक मानसिक स्थिति समझते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो इसे भूत प्रेत व ऊपरी शक्तियों के प्रकोप के रूप में देखते हैं । कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मंत्रों के माध्यम से इस समस्या के समाधान को ढूंढ़ रहे होते हैं । वाह 

मेरे योग और आयुर्विज्ञान के गहरे अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि यह समस्या केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से भी गहराई से जुड़ी हुई है।

मेरा शोध और वर्षों का अनुभव यह दर्शाता है कि नाभि दोष की समस्या से ग्रस्त अधिकांश रोगियों में केवल जैविक असंतुलन नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक अस्थिरता भी देखने को मिलती है। इस लेख में नाभि दोष के वैज्ञानिक और शोधपरक पहलुओं को गहराई से समझने का प्रयास किया गया है।

मानसिक अवस्था और नाभि दोष का संबंध और रोगियों की भ्रमपूर्ण धारणाएँ:

मेरे शोध के अनुसार, नाभि दोष की शिकायत करने वाले अधिकांश रोगी मानसिक रूप से अस्थिर पाए गए हैं। हजारों रोगियों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि 90% से अधिक मामलों में नाभि संबंधी असंतुलन का मूल कारण व्यक्ति की सोचने की प्रक्रिया और मानसिक स्थिति होती है । कहने को वे सभी स्वयं को तार्किक कहते हैं किंतु सत्य यह था कि देह के अंदर एक ऐसी काल्पनिकता के बुने हुए जाल में फँसे हुए होते हैं कि उनको उससे निकाल पाना सरल नहीं होता है । 

उदाहरण के लिए, एक रोगी ने बताया कि उसकी साँस अब नाक से नहीं, बल्कि नाभि से चलने लगी है। जब उसे वैज्ञानिक रूप से समझाया गया कि श्वसन क्रिया केवल नाक और फेफड़ों से ही संभव है, तब भी वह अपनी धारणा से हटने को तैयार नहीं था। उसका स्पष्ट कहना था कि नहीं नाभि के द्वारा ही श्वास-प्रश्वास चल रही है । 

इसके विपरीत, कुछ रोगियों को यह भ्रम होता है कि उनकी साँस नाभि तक पहुँच ही नहीं रही है, और यदि वे नाभि से श्वास लेने लगेंगे, तो उनकी समस्या का समाधान  हो जाएगा ।

एक दूसरे रोगी का यह भी कहना था कि नाक से साँसें बंद होकर रात्रि काल में सीधा आँखों से श्वास प्रश्वास चलायमान हो जाती है । 

मेरे शोध में यह बात भी सामने आई कि नाभि दोष से ग्रस्त रोगियों में कई प्रकार की भ्रांतियाँ होती हैं। कुछ रोगियों का यह मानना होता है कि उनकी साँसें चल ही नहीं रही हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि वे जीवित कैसे हैं, तो उनका उत्तर होता है—

“परमात्मा की कृपा से जीवित हूँ!”

ऐसे विरले उत्तरों से स्वयं पर भी कभी कभी शंकाएँ उत्पन्न होने लगती हैं कि समस्या दिमाग़ में है या नाभि में । यह मानसिकता दर्शाती है कि व्यक्ति अपने पेट के मध्य भाग की असहजता से इतना ट्रस्ट हो चुका हुआ होता है कि उसका मन अत्यधिक भ्रमित और अस्थिर हो चुका हुआ होता है । वह किसी भी अनावश्यक तर्क को भी वैज्ञानिक मानने लगता है । वह इसलिए कि वह समस्या से घिर चुका है और उससे निकलने का कोई मार्ग नहीं दिखता है । 

उपर्युक्त सभी स्थितियाँ इस बात को दर्शाती हैं कि नाभि दोष केवल एक शारीरिक समस्या नहीं, बल्कि मानसिक और मनोवैज्ञानिक असंतुलन का परिणाम भी है। यद्यपि आधुनिक चिकित्सा इसे नाभि की समस्या न मानकर एक मानसिक रोग के रूप स्वीकार करती है जो कि कहीं ना कहीं उनके अनुसार उचित भी है किंतु रोगियों के अनुभव को भी पूर्ण रूप से नकारा नहीं जा सकता है ।  वह इसलिए कि उनको तो कास्ट हो ही रहा है । नाभि के आस पास इतना दर्द और इतनी असहजता है कि उन्हें यह स्वीकार ही नहीं होता कि उन्हें मानसिक समस्या है । उनका तो स्पष्ट कहना होता है कि मानसिक समस्या उस नाभि के पास असहजता के कारण है न कि मानसिक समस्या के कारण नाभि के आस पास असहजता । 

नाभि दोष और मानसिक विकारों की कड़ी

मेरे शोध में यह स्पष्ट हुआ कि नाभि दोष से ग्रस्त अधिकांश रोगियों में मानसिक विकार जैसे एंजायटी (चिंता विकार) और डिप्रेशन (अवसाद) की प्रवृत्ति अधिक होती है। मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि वह मानसिक रोगी है किंतु उसके स्वभाव में चिंता और भय , एकाग्रता की कमी कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद होती है जो उन्हें नहीं ज्ञात होता है । 

• ऐसे व्यक्ति जो किसी भी बात को तार्किक रूप से समझने के बजाय जटिल व्याख्याएँ खोजने लगते हैं, वे इस समस्या से अधिक प्रभावित होते हैं।

• मानसिक तनाव का सीधा प्रभाव पाचन तंत्र पर पड़ता है, जिससे पेट से संबंधित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

• शरीर की स्वाभाविक ऊर्जा प्रणाली अव्यवस्थित हो जाती है, जिससे नाभि दोष जैसी स्थितियाँ जन्म लेती हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि नाभि दोष एक गहरी मानसिक और भावनात्मक समस्या का शारीरिक प्रतिबिंब है।

योग और ध्यान द्वारा समाधान

1. ध्यान, योग और प्राणायाम  (Meditation) – ध्यान के माध्यम से मन की अनावश्यक उलझनों को शांत किया जा सकता है, जिससे एंजायटी कम होती है और व्यक्ति अपनी वास्तविक स्थिति को समझ पाता है। इसके द्वारा मन को यह प्रशिक्षित किया जाता है कि मन को शरीर के तंत्र पर कितना हस्तक्षेप करना चाहिए और कितना नहीं । सामान्यतः मन को हस्तक्षेप की सीमा का ज्ञान ही नहीं होता है ।

यहाँ पर एक महत्वपूर्ण तथ्य को समझना बहुत आवश्यक है कि पेट के माध्यम भाग जो कहीं न कहीं असहज है वहाँ पर मन की एकाग्रता की आदत बन चुकी हुई होती है । मन बारंबार उसी असहज स्थान पर जाता रहता है । जब योग प्राणायाम के माध्यम उस मध्य भाग को को सहज और स्वाभाविक स्थिति में लाया जाता है तब मन का उस स्थान पर बारम्बार जाना बंद हो जाता है । इसके बाद मन को स्वतंत्र अनुभव करने लगता है । 

2. सही सोच विकसित करना – व्यक्ति को अपनी मानसिकता में वैज्ञानिकता और तार्किकता लानी होगी, जिससे भ्रमपूर्ण धारणाएँ समाप्त हो सकें। साथ साथ धैर्य के रहस्य को भी समझना होगा । 

3. प्राकृतिक और संतुलित जीवनशैली – संतुलन का मूल अर्थ गति और स्थिरता , परिश्रम और विश्राम के मध्य संयमन है । इसमें न केवल शारीरिक अभ्यास बल्कि संतुलित आहार, नियमित दिनचर्या और योगाभ्यास से शरीर और मन का सामंजस्य बनाना सर्वोत्तम होगा जिससे नाभि दोष जैसी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं । 

मेरे शोध निष्कर्षों के अनुसार, नाभि दोष का सबसे बड़ा कारण कोई शारीरिक समस्या नहीं, बल्कि मानसिक कमजोरी और अव्यवस्थित सोच का प्रबंधन है। 90% से अधिक मामलों में नाभि दोष केवल भ्रम और मानसिक तनाव का परिणाम होता है। जिसमें काल्पनिक प्रवत्तियों वाले स्वभाव के व्यक्तियों को यह समस्या अधिक देखने को मिलती है । 

यदि व्यक्ति अपने विचारों को व्यावहारिक, तार्किक दृष्टिकोण से परखना शुरू कर दे और ध्यान व योग के माध्यम से अपने मन को संतुलित करे, तो नाभि दोष की समस्या अपने आप समाप्त हो सकती है।

अंततः, मानसिक स्थिरता और योगाभ्यास ही इस समस्या का सबसे प्रभावी और स्थायी समाधान है।

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