भारतीय आध्यात्म में ज्ञान और ऊर्जा दोनों पर महत्व दिया गया । ज्ञान का अर्थ चेतन शुद्ध आत्मा से है जिसे शिव कहा गया और ऊर्जा का अर्थ प्रकृति से है जिसे शक्ति (दुर्गा, काली, चण्डी इत्यादि अनेकों को शक्ति का पर्याय माना गया) कहा गया । जब शक्ति अनियंत्रित होती है तब वह स्वयं को ही समाप्त कर देती जैसे राक्षसों के पास शक्ति थी । वे बहुत कर्मठ थे किंतु कर्मशीलों के द्वारा प्राप्त शक्तियाँ जब किसी ज्ञान से नियंत्रित नहीं होतीं तो वह स्वयं का ही विनाश कर बैठती हैं । उन शक्तियों की अति से मस्तिष्क destructive हो जाता है ।
ऐसी अवस्था जब किसी ज्ञात व अज्ञात कारणों से नाभि (मणिपुर) और मूलाधार की ऊर्जा का ज़रूरत से अधिक जागृत होना हो जाता है तब वह ऊर्जा स्वयं को ही जलाने लगती है । जब यह आवस्यकता से अधिक जागृत हो जाती है तब व्यक्ति में पागलपन सवार हो जाता है । इसीलिए मैं हमेशा इस ऊर्जा के संतुलन की बात करता हूँ । इस देह में उसके संतुलन की व्यवस्था की गयी है किंतु ऊर्जा नशे में वह व्यक्ति Cooling Factor को भुला देता है ।
ध्यान दें ऊर्जा को अनंत मात्रा में जागृत करने के साथ साथ उस ऊर्जा को compressed कैसे किया जाय यह जानना बहुत ही आवश्यक होता है । यह दोनों प्रक्रिया साथ चलनी चाहिए अन्यथा रावण की तरह व्यक्ति स्वयं को समाप्त कर लेता है ।
ऊर्जा को compressed form में कैसे रखा जाए यह जानना एक साधक के लिए बहुत आवश्यक होता है । अन्यथा सेक्शूअल फ़्रस्ट्रेशन इत्यादि जैसे अनेक पागलपन की बीमारी व्यक्ति में आ जाना स्वाभाविक हो जाता है ।
एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है ;
लंका के राजा रावण की नाभि ऊर्जा आवश्यकता से कहीं अधिक जागृत थी । नाभि ऊर्जा से ही उसका मस्तिष्क भी प्रकांडतम अवस्था में था । वह किसी भी स्थान विशेष पर आवश्यकता से अधिक एकाग्रता की क्षमता रखता था । एक से एक सिद्धांतों की रचना उस व्यक्ति के द्वारा की गयी । इसके बावजूद भी उसकी ऊर्जा uncompressed रह गयी जिससे उसके अंदर अहंकार आया , हिंसा आयी , दूसरों को परेशान करने की क्षमता जागृत हो गयी और साथ साथ sexual frustration भी आ गया । सामान्य दृष्टि से देखने पर उसे सेक्शूअली पागल ही कहा जा सकता था ।
अंततः हुआ क्या ! उस ऊर्जा की अति उसी के लिए काल बन गयी । यदि उसकी ऊर्जा का रहस्य देखा जाय वह उसकी नाभि में ही छिपी थी । अर्थात् उसकी की मृत्यु का राज भी उसकी नाभि केंद्र में ही था । यदि उस ऊर्जा के श्रोत को ही ख़त्म कर दिया जाय तो जीवन लीला समाप्त हो जाती । इसीलिए विभीषण ने श्री राम के द्वारा रावण की ऊर्जा को सदा के लिए समाप्त करने के लिए उसकी नाभि पर बाण चलवाया ।
यदि श्री राम की नाभि ऊर्जा की बात की जाय तो मैं उसे compressed एनर्जी कहूँगा । उनकी ऊर्जा, उनकी नैतिकता से अधिक संचालित थी , इसीलिए उनमें आवश्यकता से अधिक चंचलता नहीं थी । उनकी इंद्रियाँ और मन स्थिर थे । जो ऊर्जा को compressed करके अपनी इंद्रियाँ और मन स्थिर करते है उनका सहयोग ये पाँच भौतिक तत्व (पृथ्वी वायु अग्नि आकाश और जल) स्वतः ही करने लगते हैं । यही कारण है कि श्री राम में प्रशासनिक अनुभव की कमी होने के के बावजूद भी अपनी उसी compressed ऊर्जा की बदौलत रावण जैसे शक्तिशाली व्यक्ति और उसकी आर्मी को समाप्त कर दिया ।
मेरे अपने अनुभव में ऊर्जा की गति को हमेशा ज्ञान से compressed कर देना चाहिए , ठंडा कर देना चाहिए। यही स्वयं के लिए और समाज के लिए भी अनंत वर्षों तक लाभदायक होता है ।
हठयोग भी इसी नाभि ऊर्जा की मणिपुर चक्र के रूप में बात करता है । वह रीढ़ के भिन्न भिन्न अभ्यास के माध्यम से मणिपुर चक्र केंद्र को जागृत करता है साथ साथ कई ऐसे प्राणायाम हैं जिनकी भी सहयाता ली जाती है । जैसे उड्डयान बंध, नौली क्रिया, क्रिया योग इत्यादि अनेको विधियाँ हैं जो ऊर्जा को जागृत करने में सहायता देती हैं ।
साथ साथ हठयोग यह भी कहता है कि इस ऊर्जा का तब तक ही प्रयोग है जब तक ज्ञान न मिल जाय , ज्ञान प्राप्त होने के बाद इन क्रियाओं को अनावश्यक समझकर त्याग देना चाहिए । अन्यथा हठयोग की तकनीकों से साधक चिपक कर अपनी आत्म प्रगति रोक देता है ।
और साथ साथ उसी तकनीकों को अंतिम सत्य मानकर सर्वोच्च ज्ञान से अनभिज्ञ रह जाता है ।
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि साधक को नाभि ऊर्जा के श्रोत तक पहुँचने के लिए, उस अनंत ऊर्जा के द्वार को खोलने के लिए किसी अनुभवी गुरु के संरक्षण में ही रहकर अभ्यास करना चाहिए अन्यथा उसके लाभ से कही अधिक उसके नुक़सान देखे गए हैं ।
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