ध्यान दें रोगरहित और दुखरहित जीवन का अर्थ है, देह में सूर्य और चंद्र का संतुलन अर्थात् मध्य मार्ग जो जीवन में पूर्ण संतुलन देता है । यहाँ सूर्य का अर्थ शक्ति व ऊर्जा से है और चंद्र का अर्थ ज्ञान व जल से है । इस देह में कुछ ऐसे स्थान विशेष हैं जिसमें गर्मी पैदा करने से ऊर्जा का विष्फोट होता है, बिलकुल वैसे ही जैसे तिल से तेल निकालने के लिए उसको गर्म किया जाता है । और विस्फोट से प्राप्त ऊर्जा को इस पूरे देह में अब्ज़ॉर्ब करना ज्ञान का कार्य है । ध्यान दें वह ऊर्जा जिसका संचालन ज्ञान के हाथों में न हो तो वह शरीर में हिंसा, वायु इत्यादि पैदा करेगी ।
मेरे स्वयं के अनुभव में शरीर और मस्तिष्क का स्वास्थ्य इन्हीं दोनों (सूर्य और चंद्र) सिद्धांतों पर निर्भर करता है । इसी सिद्धांत से हठ योग की भी उत्पत्ति हुई । ‘ह’ का अर्थ सूर्य और ‘ठ’ का अर्थ चंद्रमा से लगाया जाता है । शरीर की कोशिकाओं में तनाव गर्मी पैदा करने से ऊर्जा व शक्ति पैदा होती है क्योंकि उस समय उन कोशिकाओं में गर्मी उत्पन्न होती है , और उन कोशिकाओं को जब शिथिल करके उसके मूल स्वभाव में लाया जाता है उसमें चंद्रमा का उपयोग होता है , अर्थात् एक शक्ति जो देह के अंदर ऊर्जा पैदा करती है और दूसरा तत्व (ज्ञान) जो उस ऊर्जा को एक सार्थक दिशा देता है , उसे शांत करके उस शक्ति को ठंडा कर देता और उसे स्टोर कर लेता है । कुछ वैसे ही जैसे ऊर्जा को किसी बैटरी में स्टोर कर लिया जाए और समय पर उसका उपयोग कर लिया जाय ।
वैसे ही इस देह में ऊर्जा पैदा करना और दूसरा उसको शांत करके स्टोर करना होता है । इसीलिए शरीर की उत्तर दिशा में स्थित मस्तिश पूर्ण रूप से जल प्रभावित है । उसका प्रमुख कार्य है कैसी भी ऊर्जा आए उसे मस्तिष्क में ठंडा करके स्टोर कर लेना । जैसे ही ज्ञान के द्वारा उस ऊर्जा को शिथिल किया जाता है वह अंदर शांत होकर स्टोर हो जाती है ।
यहाँ पर सूर्य का सम्बंध बाएँ मस्तिष्क से है जो नाभि को पूर्ण रूप से नियंत्रित करता है । यही नाभि केंद्र समस्त रोगों के विनाश का कार्य करता है, क्योंकि अग्नि ही है जो किसी भी वस्तु को भस्म कर सकती है । और चंद्रमा का सम्बंध दाहिने मस्तिष्क से है जो बहुत वैचारिक और ज्ञानात्मक है । जो ऊष्मा व गर्मी व ऊर्जा को सावधानी से ज्ञानात्मक रूप में नियंत्रित करते हुए शांत कर देती है ।
जैसे भोजन की गुणवत्ता में बदलाव करने से सेक्शूअल विचारों का आना स्वाभाविक होता है किंतु उस ऊर्जा को ज्ञानात्मक ढंग से नियंत्रित करके शांत भी कर दिया जाता है । इसीलिए आध्यात्म मार्ग में ज्ञान के माध्यम से देह और मस्तिष्क की ऊर्जा को कम्प्रेस कर दिया जाता है ।
जिस भी व्यक्ति के नाभि क्षेत्र में अत्यंत कमजोरी रहती है उसका मानसिक संतुलन भी ठीक से नहीं होने पाता है , वह इसलिए कि रक्त में 85 फ़ीसदी जल होने के बावजूद उसमें पर्याप्त गर्मी व ऊष्मा का अभाव होता है । उसके मस्तिष्क को वह ऊर्जा महसूस नहीं होती है । इसीलिए अधिकतर नाभि के डिगने से सम्बंधित लोगों के हाथ और पैर ठंडे मिलते हैं । यद्यपि किसी किसी के देह में में आवश्यकता से अधिक पसीने भी आते हैं, वह इसीलिए कि रक्त में स्थित 85 फ़ीसदी जल के अंदर पर्याप्त मात्रा से अधिक गर्मी बढ़ जाती है ।
एक और बात कि जिस व्यक्ति का जन्मजात स्वभाव बहुत ज्ञानात्मक और वैचारिक होता है उसकी भी नाभि ऊर्जा में कमी देखने को मिलती है , यहाँ तक कि सेक्शूअल क्षमता में भी भारी कमी देखने को मिलती है । इसीलिए ऐसे लोगों को किसी गुरु के संरक्षण में हठ योग के अभ्यास की सलाह दी जाती है । इस अभ्यास में विशेश करके उन चक्रों पर एकाग्रता किया जाता है जिसे मणिपुर एवं मूलाधार कहा जाता , जो सूर्य का केंद्र है , जिसका नियंत्रण बाएँ मस्तिष्क से होता है ।
एक सुखी रोगरहित जीवन प्राप्त करने के लिए सूर्य और चंद्र का बेहतर संयोग होना ही चाहिए । यदि शरीर में ऊर्जा के श्रोत को , और साथ साथ ज्ञान को नियंत्रित कर लिया गया तो किसी भी प्रकार का दुःख नहीं हो सकता है ।
मेरे स्वयं के अनुभव में ज्ञान को शक्ति चाहिए और शक्ति को ज्ञान चाहिए । नाभि यदि शक्तिशाली है तो वह मस्तिष्क को ऊर्जावान बनाती है , और ज्ञान के होने पर मस्तिष्क उस ऊर्जा का उपयोग का पाता है ।
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