मस्तिष्क की लत
मन का मूल स्वभाव पकड़ना है, वह पाँचों इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को रखता है । वह इन सभी इंद्रियों का स्वामी है । व्यवहार में जीने के लिए मन को अपनी इंद्रियों के माध्यम से समस्त ज्ञान को जो बाह्य संसार द्वारा प्राप्त होता है , इकट्ठा करना पड़ता है ।
ज्ञानवश व अज्ञानवश दोनों अवस्थाओं में ग्रहण करना मन की मजबूरी होती है ।
कुछ वर्षों तक मन और इंद्रियों में ग्रहण करने का यह अभ्यास निरंतर चलने मस्तिष्क एक प्रकार से तत्वों को ग्राहम करने का लती हो जाता है । मस्तिष्क को आदत पड़ जाती है काम करने की ।
मन और इंद्रियाँ पहले मस्तिष्क का इस्तेमाल करती हैं , कुछ वर्षों के बाद अभ्यस्त मस्तिष्क मन और इंद्रियों का इस्तेमाल करने लगता है ।
जैसे -मन के द्वारा शराब की लत मस्तिष्क को लगा दी जाती है । कुछ वर्षों के बाद मस्तिष्क और लिवर स्वयं ही मन को शराब पीने के लिए मजबूर कर देते हैं । मन के रोकने के बावजूद लत से ग्रस्त लिवर उसे शराब पीने के लिए मजबूर कर देता है ।
इसका प्रमुख कारण है कि मन ने शरीर को यंत्रिक बना दिया , यंत्रवत कर दिया है । मन और देह जितना यंत्रवत होते जाते हैं उतना रोग बढ़ते हैं , उतना ही व्यवहार में दोष बढ़ते हैं, उतना ही असंतोष बढ़ता है । समस्या व दुःख का जन्म अंतरतम से प्रारम्भ होता है, देह में तो मात्र दिखता है कि यह समस्या है । जन्म तो कई वर्ष पहले ही हो जाता है । किंतु अध्यात्म को सिर्फ़ अंतरतम की शांति के लिए जाना जाता है ।
सामान्यतः व्यक्ति अपने देह को अंतरतम की शांति से जोड़ ही नहीं पाता है ।
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