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मन को चलाना सरल है, रोकना कठिन है

1 year ago By Yogi Anoop

मन को क्यों चलाना सरल है, रोकना कठिन है !

      शुरुआती दौर में , या थोड़ी देर के लिए यूँ कहो कि बचपन में अपने मन को भगाना थोड़ा मुश्किल होता है , क्योंकि बचपन के समय इंद्रियाँ और मन इतना विकसित नहीं होता है । उस काल में इंद्रियाँ और मन वाह्य संसार की तरफ़ आकर्षित हो रही होती हैं । बच्चा शब्दों को सीख रहा होता है । भावनाओं के साथ खेल रहा होता है । 

लेकिन कुछ 5 से 7 वर्षों के बाद इंद्रियाँ और मस्तिष्क विचारों के इतना अधिक अभ्यस्त  हो जाता है कि वो स्वयं के ना चाहने पर भी मन को विचारों में फँसायें रखता है । यदि बच्चे से कहा जय कि सूचना बंद कर दो तो वह नहीं कर सकता है । क्योंकि उसे मन को रोकने की कला के बारे में ज्ञान नहीं है । उसने तो विचारों और शब्दों में हर्ष रहना सीखा है । 

धीरे धीरे बच्चे जब 20 वर्ष के उम्र के पार जाते हैं तब उनके विचारों को ग्रहण करने की शक्ति बहुत तीव्र हो जाती है । इस तीव्रता के कारण इंद्रियाँ और मस्तिष्क भी  अतिक्रियशील हो जाता है । ध्यान दें इंद्रियाँ और मस्तिष्क के अतिक्रियशील और आदती हो जाने पर समस्या गंभीर हो जाती है । इस अवस्था में मन के ना चाहने पर भी मस्तिष्क आदतवश कार्य करना शुरू कर देता है जिससे स्वतः ही विचारों की प्रक्रिया चल पड़ती है । 

जैसे ज़्यादातर मूड स्विंग से संबंधित समस्याएँ इसी कारण से होती है । ड्रग एडिक्शन वाले लोग हैं भी इसी समस्या से ग्रसित देखे जाते हैं । 


  व्यक्ति के 30 से 35 वर्षों के बाद तो स्थिति ये होती है कि सुबह बस उठते ही मन का तेज भागना शुरू हो जाता है ।  व्यक्ति मन को चलाने  की सोचते नहीं ।  वह  तो स्वतः ही आदत वश भागना शुरू कर देता है । और कहीं  दिन में  छोटी मोटी घटनाये घट गयीं तो समझ लो तो उस भागते हुए मन की स्थिति क्या होगी । 

यहाँ तक कि परिस्थितियों से मन का मतलब नहीं रहता । मस्तिष्क अनावश्यक कार्य का इतना अभ्यस्त है कि मन और इंद्रियों के सामने नकारात्मक परिस्थिति ना होने के बाद भी वह कार्य करवाने लगता है । 

इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि इस मन को चलाना बहुत सरल है , बहुत आसान है किंतु एक बार यह जिन्न चल पड़ा तो इसे रोकना लगभग असंभव है ।  मन को अमन (विचार रहित अवस्था) की अवस्था में ले जाना लगभग असंभव सा हो जाता है । 


यदि ध्यान पूर्वक अध्याय किया जाये तो भारतीय ऋषियों ने इसी पर कार्य किया । उन्होंने हमेशा मन को समाप्त करने की कला की खोज में जीवन लगा दिया । उनका ऐसा मानना था कि जैसे जैसे मन रुकने लगता है , विचार रहित होने लगता है तो उसके बाद ही शरीर का प्रत्येक अंग स्वतः ही हील होने लगता है । यदि स्वयं में विकास छाते हो तो मन को रोकना , शांत करना सीखना ही होगा । परम संतोष , परम शांति का एकमात्र श्रोत यही है । 


इसके लिए कई साधना को अपनाने की आवश्यकता है । जैसे किसी आध्यात्मिक ज्ञानी गुरु से हमेशा संपर्क बनाये रखने की आवश्यकता है । उससे गुरु से मन और इंद्रियों पर चर्चा अवश्य करनी चाहिए । इससे जीवन के रहस्यों का ज्ञान होता है जिसके माध्यम से व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित करता रहता है । 


ध्यान अवश्य करें । इसके माध्यम से स्वयं के मन को रोकने में सहायता मिलती है । 

योग और प्राणायाम का अभ्यास भी बहुत आवश्यक है । इसके माध्यम से मन को शरीर के अंदर प्रवेश करवा कर अनुभूति करवाया जाता है । इसके माध्यम से मन स्वयं के शरीर को अनुभव प्रारंभ करता है और बाहर भागने से स्वतः रुकता है । इंद्रियों और मस्तिष्क की नसों और नदियों में नियंत्रण आता है । 

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