हम स्वयं के बनाए हुए मनोजाल से लड़ते हैं, 24/7 लड़ते हैं । जीवन के अंत समय तक यह समझ नहीं पाते कि ये सारा मकड़ जाल स्वयं का ही बनाया था । यही सोचते सोचते कि मन हमसे यह सब करवा रहा है, जीवन बिता देते हैं ।
यह भी सत्य है कि एक आपने अपनी इंद्रियों और अधिक अंगों को एक आदत में डाल दिया तो कुछ दिनों, महीनों व वर्षों के बाद उन इंद्रियों के आदतें ही हमसे जबरन कार्य करवाने लगतीं हैं । जैसे एक उदाहरण के रूप में देखा जाय तो अधिक समझ आएगा -
जीभ को कोई नशायुक्त भोजन कुछ दिनों तक दिया जाये तो वह उस भोजन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मानेंगीं । यह जानते हुए कि वह भोजन का निरंतर लेना हानिकारक है किंतु जिह्वा मस्तिष्क को लेने के लिए मजबूर कर देती है । यद्यपि यहाँ भी मन को लड़ने की आदत लग गई है , वह रोज़ सोचता है मैं इस भोजन को छोड़ दूँगा किंतु छोड़ नहीं पाता है । अंदर में लड़ाई तो लड़ ही रहा है ।
जैसे अनिद्रा से पीड़ित व्यक्ति पूरी रात नींद लाने के लिए ही लड़ाई करता है । यद्यपि वह नींद लाने के लिये उस अभ्यास को नहीं करेगा जिससे नींद आये । वह लेटे लेटे बस नींद नहीं आ रही है इसी बात पर माथा पच्ची करता रहता है ।
जबकि सबसे अच्छा तरीक़ा होता कि जितना मेहनत नींद को लाने के लिए रात भर लड़ने में लगा देते हो उसका बस 2 प्रतिशत रात में सोने के पहले ध्यान में लगा बस नींद आ जाय ।
किंतु मन को अनावश्यक लड़ने की आदत जो हमने बना दी है ।
मन को लड़ाना ही है तो किसी उपाय की तरफ़ झोंक दो किंतु सत्य यह है कि लड़ने शब्द का ही अर्थ है कि अनावश्यक । बिना किसी मतलब के स्वयं को बर्बाद करना ।
हम दिन भर दो बने रहते हैं , एक मैं और और मन में ही एक अपना विरोधी । आपस में ही लड़ना झगड़ना चालू रहता है । इससे सबसे अधिक थकान होती है । मन मस्तिष्क को सबसे अधिक कार्य का बोझ उठाना पड़ता है । संभवतः इसीलिए मन मस्तिष्क इतना भ्रमित और थक जाता है कि वह उपाय वाले कार्य को कर ही नहीं पाता है ।
जिस दिन उसे इस सत्य रहस्य को समझ आ जाये कि उसने ही स्वयं के मन में एक से अधिक चरित्र का निर्माण करके उसी से लड़ रहा तब शायद वह लड़ना बंद कर दे ।
कुछ विशेष बारे यहाँ पर महत्वपूर्ण हैं -
स्वयं के मन के प्रति सजगता आवश्यक है
जैसे शरीर का अभ्यास होता है वैसे ही इंद्रियों और मन का भी अभ्यास व्यक्ति को करना चाहिए ।
किसी भी कार्य का मन को गहराई से अनुभव करना चाहिए । इस अवस्था में मन के बहुत तेज़ी से उड़ने के पंख काट जाते हैं ।
गहराई से अनुभव ही एक ऐसा मध्यम है जिससे मन के पंख को शांत किया जा सकता है , अन्यथा मन जीवन भर ज़मीनी अनुभव नहीं कराने देता है । वह उड़ाता ही है इसलिए कि उसे स्वयं का अनुभव नहीं मिल रहा है ।
ध्यान अवश्य किया जाना चाहिए , क्योंकि यह एक ऐसा अभ्यास है जो जीवन के किसी न किसी ऐसे कोने को जागृत कर डेटा है जिसके लिये मन जीवन भर परेशान रहता है , वह है स्वसंतोष ।
स्व को यदि स्वसंतोष नहीं प्राप्त हुआ तो वह उन तत्वों से तब तक संतोष प्राप्त करने की इक्षा करता रहेगा जब तक उसे स्वसंतोष जैसा संतोष नहीं मिल जाता है । उसका मन तब तक उड़ता रहेगा जब तक उसे स्वसंतोष नहीं मिल जाता । स्वसंतोष के लिए मन को शून्य होना ही पड़ता है , जब तक वह शून्य नहीं होता हा उसे स्वसंतोष हो ही नहीं सकता है । इसलिए मैं ध्यान की तरफ़ जाने के लिए सभी को प्रेरित करता हूँ ।
प्राणायाम अवश्य कर , क्योंकि मन के भागते भागते मस्तिष्क बहुत अधिक थक चुका हुआ होता है , उसमें इतना अधिक थकान होती है कि वह शरीर को भी रोगी बनाने लगता है । इसलिए प्राणायाम करें ताक मस्तिष्क को वापस ऊर्जा मिल जाये और वह स्व की तरफ़ बढ़ने में कामयाबी हासिल करे ।
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