शिष्य का प्रश्न —“गुरुदेव, कुछ वर्षों पहले सिंगापुर में एक वैज्ञानिक से मेरा साक्षात्कार हुआ था। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि एक दिन मानव-विज्ञान इतना उन्नत हो जाएगा कि डॉक्टर मृत्यु पर विजय पा लेंगे—एक ऐसा दिन आएगा जब मनुष्य वायरस को पूरी तरह समाप्त कर देगा और अमरता प्राप्त कर लेगा। मैं अब यह नहीं जानता कि वह वैज्ञानिक जीवित हैं या नहीं, और मैंने वर्षों से उनसे कोई संपर्क नहीं किया है। परन्तु यह प्रश्न मेरे भीतर अब भी घूमता रहता है—क्या मृत्यु को मिटाया जा सकता है?”
योगी अनूप का उत्तर — अभी कुछ समय पूर्व ग्रीस से एक विद्यार्थी डॉक्टर मेरे पास आया। वह अत्यन्त विश्वास के साथ यह कह रहा था कि यदि हम प्रतिदिन एक निश्चित मात्रा में विटामिन ‘सी’ लें, तो न केवल हम कैंसर से बच सकते हैं, बल्कि हम अमर हो सकते हैं। उसने स्वयं इस पर बीस वर्षों तक प्रयोग किया। वह अपने परिवार को भी यही समझाता रहा, उसका एक ढांचा था, एक दर्शन था—मानो शरीर पर उसकी पूरी विजय हो चुकी हो।
लेकिन हुआ यह कि वर्षों बाद जब उसने एक सामान्य स्वास्थ्य परीक्षण करवाया, तो उसमें कैंसर का पता चला। और वह उस केंस की अवस्था बहुत ही भयानक थी । जब उसके बेटे से इस विषय में बातचीत हुई, तो वह कहने लगा कि उसके पिता का उत्तर था—“मुझसे कोई त्रुटि हो गई होगी, शायद मुझे विटामिन ‘सी’ की मात्रा और अधिक लेनी चाहिए थी।” यद्यपि कुछ महीनों के बाद उनका देह शांत (मृत्यु) हो गया ।
देखो, यह उत्तर बहुत कुछ कह जाता है। यह एक मूल सत्य दर्शन का पतन है, एक मनो काल्पनिक जगत का द्वार है जो हम सबके भीतर कभी न कभी भी खुलता है। और हम यह विश्वास करते हुए पाये जाते हैं कि हमारे मुनि और ऋषि मरते नहीं थे । वे अभी भी शशरीर । किंतु जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि ‘मैं नहीं मरूंगा’, तो वह उसी क्षण मृत्यु का एक पल बिता चुका हुआ होता है । चूँकि एक सामान्य व्यक्ति जो व्यवहार को प्रश्रय न देकर उन घटनाओं को अधिक सत्य स्वीकार करें के लिए हमेशा उत्सुक रहता है जो न तो ज्ञानात्मक और न ही व्यावहारिक धन से सत्य होता है । यदि बहुत सूक्ष्म ढंग से अनुभव किया जाये तो इस देह की मृत्यु प्रति पल हो रही है । उसे रोका भी नहीं जा सकता है । किंतु वह उसे सत्य न मानकर देह को अमर बनाने की भूल करता है ।
वह अपने भीतर से जीवन की सूक्ष्मता को खो देता है। क्योंकि जीवन की सबसे बड़ी स्वीकृति यही है कि मृत्यु एक सत्य है—और यह स्वीकार करना ही जीवन का प्रारंभ है। मृत्यु से डरकर अमरता की कल्पना करना, एक प्रकार का बौद्धिक भ्रम है—एक प्रयोगशाला की दीवारों के भीतर आत्मा को कैद करने का प्रयास। मूल सत्य तो यह है कि इस देह की मृत स्वभाव को समझते हुए उसके अनुभव कर्ता जो कि मूलता अकर्ता चेतन आत्मा है , उसे अनुभव करना है । वही है जो अपरिवर्तनशील है ।
अब तुम्हारा प्रश्न मस्तिष्क के बारे में है—विशेष रूप से उसके ऊपरी हिस्से में स्थित किसी ऐसी ऊर्जा की संभावना को लेकर, जो डीएनए के स्तर तक हीलिंग कर सके। हाँ, यह प्रश्न वैचारिक रूप से गहरा है। मस्तिष्क के कुछ भाग ऐसे हैं, जो केवल स्मृति या संज्ञान से नहीं जुड़े होते, बल्कि चेतना की उच्चतम तरंगों से भी। योग में उसे सहस्रार कहा गया है—जहाँ व्यक्ति आत्मा के स्रोत से एकाकार होता है। वहाँ से ऊर्जा केवल शरीर को ठीक करने के लिए नहीं, बल्कि शरीर से परे दृष्टि देने के लिए सक्रिय होती है।
लेकिन हमें यह समझना होगा कि शरीर को हमेशा के लिए जीवित रखना संभव नहीं है—चाहे विज्ञान कुछ भी दावा करे। यह शरीर, जो रूप, रंग, आकार से बना है, एक दिन मिटना ही है। क्योंकि यह ‘मिश्रण’ है—मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ। और जो चीज़ें ‘जोड़’ से बनी हैं, उनका एक दिन ‘वियोग’ निश्चित है। मिट्टी तो अपनी जगह रहेगी, परंतु जिस घड़े का आकार हमने उसमें डाला है, वह आकार एक दिन टूटेगा ही।
तो मृत्यु से मुक्ति विज्ञान नहीं, आत्मा के गहन अनुभव से मिलती है। मृत्यु से डरे बिना जब हम उसे स्वीकार करते हैं, तभी जीवन को सम्पूर्णता में जी सकते हैं। अमरता की तलाश में जीना, मृत्यु की छाया में जीना है। लेकिन मृत्यु को समझकर, उसे स्वीकार कर जो जीता है—वही वास्तव में मृत्यु से मुक्त होता है।
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