‘मैं’ का कोई मानचित्र नहीं है कि उसे ढूँढ़ा जा सके । जितना ढूँढते जाते हैं उतना ही मानचित्र का आकार बढ़ता जाता है और उसको खोजने का प्रयत्न भी बढ़ता जाता है । ढूँढने की प्रक्रिया बढ़ती जाती है, किंतु मिलता कहीं नहीं । बजाय कि कहाँ हैं ? ये जानना आवश्यक है कि वह कौन है । सामान्य व्यक्ति कहता है कि यदि उसका उसके रहने का स्थान ज्ञात हो जाए तो उसके बारे में ज्ञान हो जाएगा । सत्य यह है कि ये बात इंद्रिय गामी ही कर सकता है , वह जिसे दृश्य स्थान के अतिरिक्त और कुछ पता ही नहीं । वह अव्यक्त को भी व्यक्त रूप में देखना चाहता है । दृष्टा को दृश्य के रूप में देखना चाहता है । जो लगभग असम्भव है । उसके समझने का साधन सिर्फ़ दृश्य व कल्पना है , सम्भवतः इसीलिए वह उस “मैं” को पाने के लिए स्थान ढूँढता हैं । अन्यथा वह समझने का प्रयास करता ।
ध्यान दें वह ग़ायब नहीं है, वह तो पूर्ण अस्तित्व में है , उसी के अस्तित्व की बदौलत उसे ही ढूँढने का प्रयत्न किया जा रहा । जिस दिन यह ज्ञान हो गया कि वह समस्त दृश्यों का दृष्टा है , ‘मैं’ कहाँ रहता हूँ की खोज समाप्त हो जाएगी है । उस खोज का महत्व समाप्त हो जाएगा है । इसीलिए स्वयं को ज्ञान सर्वाधिक आवश्यक है, अनुभव आवश्यक है किंतु एक सामान्य व्यक्ति उसे आँखों से ही देखना चाहता हैं, उसे ऐसे लगता है वही किसी स्थान को घेरे हुए होगा । सत्य तो यह है कि देश काल से परे है ।
सत्य यह है कि ‘मैं” इंद्रियों और मन का सहयोग लेकर तब तक भागता है जब तक कि उसे संतुष्टि न मिल जाए । पूर्ण संतुष्टि उसे तभी मिलती है जब वह स्वयं की इंद्रिय और मन को रोक कर स्वयं में विलीन हो जाता है । यही उसकी पूर्ण गति है ।
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