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मानते हो या जानते हो !

2 years ago By Yogi Anoop

मानते हो या जानते हो !

मानने की क्रिया जितनी बढ़ती जाती है उतनी ही जानने की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं । 99.9 से अधिक लोग सिर्फ़ ‘मानने’ का कार्य करते है । जीवन भर वो मानते ही हैं किंतु जिसको वे मानते हैं उसे वे जान नहीं पाते हैं ।

एक उदाहरण दूँ - 

भगवान को को ९९ फ़ीसदी लोग मानते हैं पर वे ये नहीं कहते हैं कि वे जानते हैं । पूरे जीवन यह समझ नहीं पाते कि मानने और जानने में फ़र्क़ है क्या । उनकी अंतरतम यह बता रही होती है कि वे सिर्फ़ मानते हैं । मन और इंद्रियाँ जो मान रही होती हैं उसको बाहर जीवन में प्रयोग नहीं कर पाती हैं । क्यों कि जो मानती हैं उसका जीवन में व्यावहारिक प्रयोग सम्भव नहीं हो सकता  है । 

जैसे - 

“प्रत्येक अणु में भगवान है’

‘हर कण-कण में परमात्मा है ।”  


ये सभी मानते हैं किंतु इसका अभ्यास व्यवहार में सम्भव नहीं हो सकता है । 

भोजन करते समय यदि भोजन कणों के अंदर भगवान मानोगे तो भोजन का स्वाद कैसे ले पाओगे ! भोजन तो बस भोजन है उसे मानते क्यों हो ? उसका पूरी पूरी तरह से स्वाद लो , यदि जीभ उसका पूरा स्वाद लेती है तब पाचन ढंग से हो पाएगा । मन संतुष्ट हो जाएगा , अर्थात् आप अपना धर्म निभा रहे हो । भोजन करते समय भोजन का स्वाद महत्वपूर्ण है न की अन्य विचार ।

यदि भोजन करते समय किसी मनगढ़ंत बातों को दिमाग़ में रखते हो तो इसका अर्थ है कि भोजन वाला धर्म पूरी तरह से निभा नहीं रहे हो । 

किसी भी कार्य को करते समय मन को उसी कार्य में एकाग्र करके अनुभव करवाना पड़ता है, इसी प्रक्रिया से अनुभव और ज्ञान बढ़ता है । किंतु यदि किसी कार्य को करते समय मन को उस कार्य में न ले जाकर किसी अन्य माने हुए काल्पनिक बातों डालते हो तब इसका अर्थ है कि मन वर्तमान में अनुपस्थित हो । 


किसी भी वस्तु को जानने के लिए मन इंद्रियाँ एक साथ लगाना पड़ता है किंतु यदि उस वस्तु में मन भगवान को ढूँढ रहा है तो जानेगा कैसे !


इस मनुष्य मन की सबसे बड़ी समस्या है कि जो उसके आस पास है, (कर्मेंद्रियाँ ज्ञानेंद्रियाँ) उसे वह कुछ नहीं समझता । उसे वह तुच्छ समझता है । वह उसे ही सर्वोत्तम समझता जो उसकी पहुँच से बाहर है । वह जो दूर है उसे वह सब कुछ समझता है । 

वह उस साँस को कुछ भी नहीं समझता जो हर एक पल ले और छोड़ रहा है ।

वह उसे (परमात्मा) ढूँढने में व्यस्त है जो साँसों को चला रहा है । 

ध्यान दो जब साँसों के चलने में दिक़्क़तें आने लगती हैं तब यही ईश्वर के खोजी  हॉस्पिटल, डॉक्टर और ऑक्सिजन स्लेंडर को खोजते हुए पाए जाते हैं । 


जब कि मूल सत्य यह है जो साधन है उसी में साध्य छिपा हुआ होता है । साधन को जितना समझते जाते हो उतना ही साध्य को प्राप्त करते जाते हो । 


किंतु जानने और समझने की प्रक्रिया तो हमें बतायी ही नहीं जाती है । हमें तो साधनों  की उपेक्षा करना सिखाया जाता है । 

जैसे-

“स्त्री नर्क का द्वार है” 

“स्त्री बंधन का कारण है” 

जब दिन भर स्त्री को नर्क का द्वार मानते रहोगे तब स्वप्न में भी स्त्री ही रमण करेगी और परिणाम यह होगा कि मन ही मन स्त्री से वह सारे दुष्कर्म करोगे जो मन मस्तिष्क को क्षतिग्रस्त कर देने वाला होगा । 


बिलकुल इसी तरह पूरा जीवन ईश्वर को मानने में लगा दिया, यही कहते हुए कि यह संसार क्षणिक है और दुःख देने वाला है । इस संसार को जानने में नहीं लगाया । हर व्यक्ति गर्व से कहता है कि मैं ईश्वर को मानता हूँ , उसकी सत्ता हर एक कण-कण में है । किंतु वह जानता नहीं है । बस कहता मात्र है । 

यदि वह जानता होता , या अनुभव कर लिया होता तो उसे बार बार कहने की आवश्यकता ही न पड़ती कि प्रत्येक कण में वह मौजूद है । 

क्या किसी को हर एक दिन यह कहते हुए सुनते हो कि चीनी (शुगर) के हर दाने में मीठापन है । जो अनुभव कर लिया मन उसका रेपटिशन नहीं करता है । 

सभी को यह अनुभव है कि वह मीठी होती है , उसे बार बार कहने की क्या आवश्यकता । 

इसी प्रकार आध्यात्म में जब आप अपने साधनों को समझने लगते हैं, अनुभव करने लगते हैं , तब परमार्थ को जानना शुरू करते हैं । यही मोक्ष देगा , यही परम शांति देगा । यही समस्त भ्रमों को काटेगा ।  

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