यद्यपि विचारों का विचारों से कभी अंत संभव नहीं दिखता है । विचारों को समाप्त करने के लिए चाहे जितना विचार कर लो, वह समाप्त नहीं हो सकता है । कुछ वैसे ही जैसे हिंसा का हिंसा से अंत संभव नहीं हो सकता है । हिंसा को समाप्त करने के लिए यदि कोई हिंसा की जा रही है तो इसका अर्थ है वह एक अन्य प्रकार कि हिंसा ही है ।
एक अन्य उदाहरण से समझने का प्रयास किया जाना चाहिए । जैसे आग को बुझाने के लिए किसी अन्य आग का सहयोग नहीं लिया जा सकता है । जल को समाप्त करने के लिए जल का सहयोग संभव नहीं है । -
उसी तरह विचार को समाप्त अड़ने के लिए किसी अन्य विचार का सहयोग संभव नहीं है । क्योंकि इस प्रक्रिया से विचारों का अंत कभी भी संभव नहीं हो सकता है । क्योंकि एक विचार को ख़त्म करने के लिये किसी दूसरे विचार का प्रयोग करना पड़ेगा और फिर उस विचार को समाप्त करने के लिए किसी अन्य विचार को लाना पड़ेगा । इस तरह से अंत में कोई ना कोई विचार रहेगा ही ।
इसीलिए हिंसा को सदा के लिए समाप्त करने के लिए एक अन्य हिंसा के बजाय अहिंसा का सहयोग लिया जाता है । -
यद्यपि विचारों को समाप्त करने के लिए भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं , जैसे स्वयं को कर्म में इतना इन्वॉल्व कर देते हैं कि मन शांत हो जाता है ।
कुछ अन्य लोग प्रभु की भक्ति में समर्पण भाव को इतना मजबूर करते हैं कि विचारहीनता हो जाती है । यद्यपि समर्पण भाव एक प्रकार का विचार ही है । किंतु उस विचार से मन हल्का और शांत हो जाता है । विचारहीन हो जाता है ।
कुछ साधक ऐसे भी हैं जो किसी एक विचार पर अधिक देर तक चिंतन करते हैं तो उन्हें अन्य अनावश्यक विचारों से मुक्ति मिल जाती है और साथ साथ कुछ देर के चिंतन के बाद विचार शून्यता की अवस्था आ जाती है ।
कुछ साधक ऐसे भी हैं जो आसन व प्राणायाम के कुछ अभ्यास के द्वारा विचार शून्यता की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं । किंतु ध्यान दें विचार शून्यता की ये सारे प्रयास संपूर्णता नहीं देते हैं । -
यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो इन सभी साधनों में कहीं ना कहीं विचार शून्यता को प्राप्त करने के लिए किसी एक विचार का सहयोग लिया गया ।
अर्थात् विचारों के सहयोग से विचार शून्यता को प्राप्त किया गया । किंतु विचारों से विचार रहित पूर्ण रूप से संभव नहीं है ।
इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि विचार को समाप्त करने के लिए अविचार का सहयोग लिया जाना चाहिए । वैसे ही जैसे आग को समाप्त करने के लिए पानी का सहयोग लिया जाता है ।
अविचार का अर्थ यहाँ पर साक्षी भाव से है । व्यक्ति जब स्वयं का ही साक्षी होने लगता है तब विचार बहुत आराम से रोके जा सकते हैं । यहाँ पर साक्षी भाव का अर्थ है अभाव अवस्था से है ना कि किसी भाव अर्थात् विचार से है । साक्षी अवस्था में चिंतन की प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं किया जाता है ।
इसीलिए ज्ञान योग में इस अवस्था को सर्वोच्च और अंतिम अवस्था कहा गया ।
यदि किसी आध्यात्मिक गुरु के संरक्षण में रहकर इस ‘साक्षी’ में रहने का अभ्यास किया जाय तो निश्चित तौर पर मन को पूर्ण रूप से अमन में लाया जा सकता है । मन को मारने के लिए मन का इस्तेमाल ना करके अमन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए ।
मेरे स्वयं के अनुभव में सामान्य व्यक्ति का मन वैचारिक प्रक्रिया का इतना आदती हो जाता है कि उसे साक्षी में रहने का अर्थ समझ में नहीं आता है । ज़्यादातर साधक साक्षी अवस्था में भी चिंतन की प्रक्रिया का अभ्यास कर रहे होते हैं । इसीलिए बार बार अपने अनुभवी आध्यात्मिक गुरु से संपर्क में रहकर ध्यान का अभ्यास किया जाना चाहिये जिससे विचारों से परे जया जा सके ।
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