यह एक ऐसा प्राणायाम है जिसके माध्यम से गले एवं साइनस के सभी क्षेत्रों में अभ्यास करवाया जाता है । इसी के माध्यम से साइनस के क्षेत्र में जितने मल एकत्रित रहते हैं उसे दूर किया जा सकता है । यहाँ पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि अन्य किसी क्रियाओं के सहयोग से इसमें सफलता नहीं मिल सकती है । जब इस क्षेत्र की साफ़ सफ़ाई हो जाती है तब मस्तिष्क के सामने का कई हिस्सा स्फूर्तिमान और ऊर्जावान हो जाता है । इसीलिए ऋषियों ने इसका नामकरण कपाल - भाती अर्थात् कपाल का चमकना, से किया । यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि जब साइनस के क्षेत्र में मल को दूर करने का प्रयास किया जाता है तब उसका प्रभाव आँतों पर भी पड़ता है । अर्थात् अभ्यास करने वालों की आँतों में स्वास्थ्य बढ़ता है । कब्ज जैसी समस्या से छुटकारा मिलने में सहायता मिलती है ।
अब मूल प्रश्न पर आते हैं कि क्या कपालभाती प्राणायाम के अभ्यास से सभी रोगों को दूर किया जा सकता है । तो मैं स्वयं के अनुभव से कहूँगा कि नहीं । यह अवश्य है कि इसके अभ्यास से बहुत रोगों के ठीक किया जा सकता है किंतु सभी रोगों को ठीक करना, कहना उचित नहीं है ।
मेरे अनुभव में यह प्राणायाम कफ़ प्रधान व्यक्तियों के के लिए सर्वोत्तम है क्योंकि उनके साइनस क्षेत्र में मल जमा होने से उसके फेफड़े, हृदय गति, आँतें और सभी ज्ञानेंद्रियों इत्यादि सभी अंगों पर दुष्प्रभाव पड़ता है । किंतु यह क्रिया पित्त और वात प्रधान प्रकृति वालों के लिए सर्वथा उचित नहीं । बल्कि मेरे अनुभव में इस क्रिया का अभ्यास वात और पित्त प्रकृति वालों के लिये अत्यंत हानिकारक है ।
जिसकी साइनस क्षेत्र में ड्राइनेस है , सूखापन है , ज्ञानेंद्रियों में सूखापन वि ड्राइनेस है , उसे इस प्राणायाम का अभ्यास बहुत ही हानिकारक है ।
अपने प्रयोगों के दौरान यह पाया कि बहुतों में कुछ रोग तो इस प्राणायाम की आवश्यकता से अधिक अभ्यास से बढ़े हैं । रोगी किसी भी क्रिया व प्राणायाम का अभ्यास इस बात पर नहीं कर सकता कि उससे सभी रोग ठीक हो जाएँगे ।
जब एक तरह का भोजन करने, एक प्रकार के सोचने से, रोग नहीं हो सकता तो एक ही प्रकार के प्राणायाम से सभी रोगों को कैसे ठीक किया जा सकता है ।
कुछ अदूरदर्शी गुरु प्राणायाम की विशेषताओं को बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं । मानो उसकी कोई मार्केटिंग की जा रही हो । किंतु प्राणायाम व योग की साधना में प्रत्येक क्रियाओं की गहराईं में जाना आवश्यक होता है । उसके मूल दर्शन को समझना अत्यंत ही आवश्यक होता है जिससे रोगी व अभ्यासी को सीमाओं का सदा ज्ञान रहे ।
यहाँ पर यह ध्यान देना आवश्यक है कि रोगी को अपनी सीमाओं का ज्ञान नहीं होता है तभी तो वह रोगी हुआ है । यहाँ पर इंद्रियों की सीमा , जीवन को कैसे जिया जाए उसकी सीमाएँ , भोजन क्या , कैसे और कितना किया जाये उसकी सीमाएँ । इन सभी का ज्ञान नहीं ऐट है ।
और यदि वह प्राणायाम के अभ्यास में भी उसी स्वभाव का प्रयोग करने लगा तो उसके रोग की मात्रा कम होने के बजे बढ़ेगा ही है ।
इसीलिए एक दूरदर्शी गुरु को चाहिए कि रोगी को सर्वप्रथम ज्ञान दे उसके बाद क्रियाओं को करने की इजाज़त दे । कैसे और कब करना चाहिए इसका ज्ञान होना बहुत आवश्यक है ।
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