“अहिंसा प्रतिष्ठायाम तत्सन्निधौ वैरत्यागः” अहिंसा की प्रतिष्ठा व सिद्धि हो जाने पर अहिंसक व्यक्ति से अन्य प्राणी भी वैर त्याग देतें हैं । यद्यपि अहिंसा का मूल अर्थ है कि प्रतिक्रिया की दासता से पूर्णतः मुक्ति । व्यक्ति के अंदर निरंतर क्रिया प्रतिक्रिया चलती रहती है और उसी द्वंदो से वह जूझता रहता है । उसके अंतर्मन में प्रतिक्रियाओं पर पूर्ण विराम नहीं लग पाता है ।
जैसा कि सूत्र में है कि अन्य प्राणी भी वैर त्याग देते हैं , यहाँ पर शाब्दिक अर्थों में देखने पर ऐसा लगता है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीव पूर्ण अहिंसक व्यक्ति का मित्र हो जाता है । अर्थात् सभी जीव चाहे वह माँसाहारी ही क्यों न हो, वे सिद्ध व्यक्ति से वैर भाव त्याग देते हैं । यद्यपि इस प्रकार का अनुभव मुझे नहीं हुआ । किंतु इतना सत्य है कि आपकी इंद्रिय का व्यवहार बहुत ही सम्यक् हो जाता है जिससे किसी भी व्यक्ति के अपमान करने के बावजूद भी आपके अंदर सौम्यता और सम्यक्ता बनी रहती है । इस प्रकार के आचरण से हिंसक व्यक्तियों की हिंसक प्रवृत्ति अधिक नहीं बढ़ने पाती है ।
यम (अहिंसा) के किसी भी अंगों का अभ्यास करने पर साधक का प्रयत्न यही होता है कि वह उसी व्यवहार में स्थिर रहे ताकि उसकी इंद्रियों को उस प्रकार के व्यवहार की आदत पड़ जाए । और मजबूरन मन में अप्रतिक्रियाशीतला आ जाय ।
किन्तु यह कहना कि अहिंसा के दृढ हो जाने पर अन्य सभी प्राणी वैर भाव छोड देते हैं तो यह तार्किक और आनुभविक नही होगा । यदि कोई माँसाहारी जीव सामने आ जाय तो यह तो संभव है कि अहिंसा मे दृढ स्थिर शाधक भयाक्रान्त किन्चित मात्र भी नही होगा भले ही वह उसको खा क्यों न जाय किन्तु यह संभव नही कि उस जीव मे अहिंसा वृत्ति जग जाय । अहिंसा का अभ्यास स्वयं में परिवर्तन के लिए किया गया न कि माँसाहारी जीव का स्वभाव परिवर्तित करने के लिए, उसके मूल स्वभाव में परिवर्तन नही हो सकता है । यदि ऐसा संभव होता कि अहिंसा मे स्थित होने से सामने वाला अहिंसक हो जायेगा तब सुकरात न मारे जाते ।
अंत में सभी सामान्य साधकों को यह कहना चाहूँगा कि साधना स्वयं के अंतरतम की शुद्धि के लिए , प्रमुख उद्देश्य स्वयं को प्रतिक्रिया विहीन बनाना है , यदि उससे समाज को लाभ मिलता है तो सर्वोत्तम है ।
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