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कुंडलिनी साधना के साइड इफ़ेक्ट

2 years ago By Yogi Anoop

कुंडलिनी साधना के ग़लत अभ्यास से क्या क्या परेशानियाँ हो सकती है . 

एक उदाहरण से अपनी बात की शुरुआत करते हैं - जब आप शरीर को कुछ मिनटों व घंटों तक दौड़ाते हैं तब स्वाभाविक तौर पर शरीर में जल की मात्रा में कमी होती है , और शरीर अपनी आवश्यकताओं  को इंद्रिय को बताता है और आप उसे पानी पिलाते हैं । यहाँ पर शरीर अपनी आवश्यकताओं को प्यास के रूप में बता रहा है और आप उचित मात्रा में शरीर को भोजन व पानी दे देते है ।  

किंतु चक्र साधना में शरीर अपनी आवश्यकता नहीं बताता , वहाँ पर तो मन को अर्पित किया जाता है । उसमें मन और इंद्रियों को किसी एक चक्र पर अधिक समय तक एकाग्र कर दिया जाता है , स्वाभाविक रूप से उस एकाग्रता से मस्तिष्क व चक्रों के आस पास स्थित महत्वपूर्ण ग्लैंड्स हार्मोन्स का स्राव करना शुरू कर देते हैं । 

ध्यान दें यदि उसके देह को उतनी मात्रा में हार्मोन्स की आवश्यकता है तब तो उसकी समस्या का समाधान हो गया, उसके अंदर अनेक रोगों का समाधान भी हो जाएगा ।

बिलकुल उसी प्रकार जैसे प्यासे को पानी उचित मात्रा में मिल गया  तो उसकी प्यास बुझ जाएगी किंतु यदि ध्यान में चक्रों पर अधिक एकाग्रता से हार्मोन्स का स्राव आवश्यकता से अधिक मात्रा में निकलने लगा जो शरीर की आवश्यकता से कही अधिक है तब शरीर और मन में उसका दुष्प्रभाव होना निश्चित ही है । शरीर के अंदर प्रवाहित हो रहे में अत्यधिक हार्मोन्स जिसकी उतनी मात्रा में देह को आवश्यकता नहीं है, से रोगों का पैदा होना निश्चित ही है । बिलकुल वैसे ही जैसे किसी खेत में पानी की आवश्यकता नहीं है फिर भी उसमें पानी डाला जा रहा तो स्वाभाविक रूप से उस खेत की फसल का सड़ना निश्चित है । 

मेरे अपने अनुभव में साधना में अच्छे भाव के साथ साथ दिमाग़ भी लगाना पड़ता है । कितना ही अच्छा भाव रख लो किंतु ज्ञान का प्रयोग यदि नहीं किया तो चक्र साधना मन की समाधि के बजाए शरीर का ही समाधि बना देती है ।। 

सकारात्मक  भाव रखना एक अलग बात है  किंतु किसी शरीर में आवश्यकता से कहीं अधिक मात्रा में किसी भी प्रकार का भोजन डाला जाएगा तो अच्छे भाव के होने के बावजूद भी रोग तो होना निश्चित ही है । अच्छे भाव होने के बावजूद भी आप रोगों से बच नहीं सकते है । 

कुछ ऐसे ही जैसे पहली बार बनी माँ अपने बच्चे को ठूँस ठूँस कर भोजन करवाते हुए देखी जाती है । माँ का स्वप्न है कि मेरा बच्चा विश्व का सबसे बड़ा पहलवान बन जाये । उसी स्वप्न को ध्यान में रखते हुए भोजन ठूँसे जा रही है । बच्चे के शरीर को उतनी मात्रा में भोजन की आवश्यकता है या नहीं , इसे माँ को एहसास नहीं है । उसे तो बस पहलवान बनाना है । 

अब बच्चे की शरीर और इंद्रियाँ इतनी मज़बूत हैं नहीं कि रोक सके । उसे मजबूरन भोजन को निगलना पड़ता है और कुछ वर्षों में ही बच्चा मानसिक और शारीरिक रूप से कुपोषण का शिकार होते हुए देखा जाता है । बच्चे के शरीर को अपनी भूँख को बताने का मौक़ा ही नहीं मिलता , माँ ही अच्छी भावना रखते हुए कि बच्चा मोटा तगड़ा हो जाएगा बस ठूँसे जा रही है । 


    बिलकुल वैसे साधक अच्छी भावना रखते हुए ध्यान में चक्रों पर आवश्यकता से अधिक एकाग्रता करते हुए देखे जाते हैं । शरीर की आवश्यकता पर अच्छे भाव भारी पड़ जाते हैं जिससे शरीर अपनी आवश्यकों को मन इग्नोर कर देता है । मन अपनी बनायी हुई काल्पनिक इक्षाओ को शरीर पर लादने लगता है । समस्या यह है चक्रों के ध्यान में आँखों के बंद करने के साथ दिमाग़ भी बंद कर दिया जाता हैं जब कि आँखें इसलिए बंद की जाती हैं कि ज्ञान की आँख खुल जाये । । 


अंत में मैं कहना चाहूँगा कि मन शक्तिशाली और शांत तब होता है जब वह शरीर की आवश्यकों के अनुरूप उसे भोजन दे दे । उन्हीं आवश्यकताओं में ही मन को शांति ढूँढनी पड़ती है । जैसे भोजन करते समय ही मन स्वाद को अनुभव करके स्वयं को शांत कर लेता है । 


अन्यथा ये साधनाएँ व्यक्ति में कुछ ऐसी भी समस्याएँ देने लगती है जिससे डॉक्टर साहब लोगों का मस्तिष्क भी चक्कर में पड़ जाता है । इसीलिए ज़्यादातर डॉक्टर्स ऐसे लोगों को मानसिक समस्या का शिकार समझ कर किसी मनोवैज्ञानिक के पास जाने की सलाह दे देते हैं । 

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