50 व्यक्तियों के एक समूह पर कार्य करना शुरू किया जो व्यापारिक वर्ग से आते थे । उन सभी की उम्र 50 से 55 के मध्य थी । यद्यपि यह सत्य है कि वे सभी मेरे प्रयोगों से अनभिज्ञ थे , बड़ी आत्मिक गहराई से उनके स्वभाव पर कार्य करने के दौरान उस पूरे समूह में 2 व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी के सभी “कर्तापन” की अति भावना से ग्रसित थे ।
उन सभी में लगभग एक ही लक्षण मिले, उनका कहना था कि मेरा सबसे बड़ा दुःख इसी बात का है कि
“मैंने लोगों के लिए बहुत कुछ किया किंतु मेरे लिए किसी ने कुछ भी नहीं किया”
कुछ ने कहा कि मैंने अपने और दूसरों के बच्चों के लिए सब कुछ किया किंतु उन्होंने कुछ नहीं किया , रिश्तेदारों के लिए सब कुछ किया किंतु वे इसका उपकार नहीं मानते, और कुछ ने कहा कि मैंने अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए बहुत किया किंतु उनसे मुझे हमेशा गालियाँ ही मिली, और यह भी कहा गया कि तुमने हमारे लिए कुछ नहीं किया । कुछ ने तो यह भी कहा कि मैंने दो प्यार के जोड़ों को मिला दिया इत्यादि इत्यादि किंतु अब मेरे महत्व को कोई ध्यान नहीं देता है ।
ध्यान से देखने पर यहाँ दो तरह की बातें एक ही साथ की जा रही हैं , एक में स्वयं को महान बताने की, स्वयं में कर्तापन को लादे रहने की और उसी के बाद उसके अंदर इस बात का भी क्षोभ व मलाल है कि उसके लिए किसी ने नहीं किया । एक कर्तापन को बढ़ाता है और दूसरा अवसाद व घृणा को ।
उन सभी ने घंटो घंटो तक अपने भूतकाल में किए गए सहायता का खूब ज़िक्र किया । उन सभी का कहना था कि मैंने ये किया तो मैंने वो कर दिया किंतु दूसरों ने सहयोग नहीं किया । यह सत्य था कि वे सभी ख़ुशियों को भूतकाल से निकालने में प्रयत्नशील थे । किंतु उन सभी बातों के पीछे यह झलक रहा था कि वे सभी अपने अंदर कर्तापन से पीड़ित थे । उन्हें इस बात गा गुमान था कि उन्होंने बहुत कुछ किया । सत्य यह है कि इस प्रकार के लोगों में नकारात्मकता भी अधिक होती है और अंदर ही अंदर हो रहे अवसाद व दुःख को ढकने की कोशिश कर रहे होते हैं । जब कि दूसरे ही बात में ‘कि किसी ने कुछ नहीं किया’ अवसाद दिखता है । ऐसे लोग एक ही वाक्य में अपने विरोधाभासी स्वभाव को दिखा देते हैं ।
मैंने यह पाया कि मन पर जितना “कर्तापन” का अधिक बोझ बढ़ता जाता है उतना ही आध्यात्मिक प्रगति बाधित होती जाती है, उतना ही मन पर भार बढ़ता जाता है साथ साथ स्वयं को सही साबित करने के लिए दूसरी को ग़लत ठहरने की भी आदत बढ़ती जाती है । यद्यपि व्यक्ति अपने द्वारा किए उन कार्यों का इसलिए बखान करता है कि उसके मन को अल्पकालिक शांति मिल जाय । किंतु उन सभी लोगों के स्वभाव में आवश्यकता से अधिक धैर्य की कमी भी देखने को मिली । किंतु मैंने पाया कि “मैंने किया-मैंने किया और मैंने ही किया” करते रहने से उनके मन पर “कर्तापन” का बहुत अधिक बोझ आ गया था । यही भावनाएँ व सोच भविष्य में उनके क्रोध, तनाव, और अवसाद का कारण बन बैठी थी ।
कर्मयोग व ज्ञान योग में किसी भी प्रकार का बोझ बर्दाश्त नहीं किया जाता है । कर्म योग तो कहता है कि फल की भी चिंता मत करो, प्रयत्न इसलिए करना चाहिए कि स्थिरता प्राप्त हो जाए । इसलिए नहीं कि अस्थिर हो जाएँ । उस कारण में कितना आनंद प्राप्त हुआ , इससे कर्मफल इक्षानुरूप न मिलने पर दुःख नहीं होता है । कर्म का फल तो स्वाभाविक है, वह मिल कर रहेगा, थोड़ा कम या अधिक हो सकता है ।
ज्ञान योग कहता है कि विचारों और भावनाओं पर निर्भरता न रहे । वह कहता है तुम स्वयं में अकर्ता हो । कर्म तुम नहीं करते हो बल्कि कर्म तुम्हारे द्वारा किया जाता है । इसलिए क्यों कर्ता का बोझ दिमाग़ पर लादे हुए घूमते हो । शरीर इंद्रिय से तो कुछन कुछ करना ही था । यदि किसी की सेवा में उसे डाल दिया गया तो क्या परेशानी है । यदि वे उस कर्तापन का त्याग कर देते तो मन को पूर्ण विश्राम मिल जाता । किंतु समाज में क़र्म करते हुए भी निष्कामता का अनुभव नहीं कर पाते हैं । और अंततः यही कर्तापन अंतरतम पर बोझ दे कर शारीरिक और मानसिक रोगी बना रख देता है ।
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